हमारे समाज में अनेक लोग हैं जो ईश्वर के साकार रूप (मूर्ति) की पूजा करते हैं और वह भी अनेक रूपों में। जैसे-राम, कृष्ण, शिव, लक्ष्मी, राधा, पार्वती, सरस्वती, नरसिंह ,गणेश आदि। किन्तु कई ऐसे लोग भी हैं जो इस पद्धति अर्थात मूर्ति पूजा को नहीं अपनाते। जैसे-आर्य समाज, ब्रम्ह समाज, कबीर पंथी, इस्लाम आदि। अब समाज में इसको लेकर एक असमंजस की स्थिति है कि मूर्ति पूजा सही है या गलत? यदि सही है तो कैसे और यदि गलत है तो कैसे? कुछ लोग कहते हैं कि वे साकार रूप में ईश्वर का साक्षात्कार कर चुके हैं और इसलिए उसकी मूर्ति की पूजा भी सही है जबकि अन्य लोग कहते हैं कि सबको बनाने वाला इतना बड़ा और महान है कि उसका कोई रूप,आकार हो ही नही सकता। लेकिन कुछ सिद्धों का मत है कि ईश्वर दोनों रूपों में अपना अस्तित्व प्रदर्शित करता है। जैसे-तुलसीदास को ही देखिए-वे कहते हैं-
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम वश सगुन सो होई।।
हरि व्यापक सर्वत्र सामना ।
प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना।
अर्थात निर्गुण, निराकार, अजन्मा, चिंतन से परे जो ब्रम्ह है वही भक्तो के प्रेम से सगुण, साकार हो जाता है, मूर्ति रूप हो जाता है। इस अवस्था परिवर्तन के समय उसका मूल चरित्र नही बदलता। जैसे-पानी जब द्रव से ठोस (बर्फ) या भाँप में परिवर्तित होता है तो उसकी आण्विक संरचना अपरिवर्तनीय रहती है। अर्थात हरेक अवस्था में वह तत्वतः एक ही होता है। यह अपनी रुचि और क्षमता पर निर्भर करता है कि हम किस रूप की अवधारणा सुगमता से कर सकते हैं। इसे एक उदाहण से समझें- हम लोगों को जब मीठा का स्वाद लेना होता है तो हम लोग चीनी या गुड़ से बनी कोई मीठी चीज खाते हैं। लेकिन क्या सिर्फ इनमें ही मिठास होती है? नहीं। अगर इन्ही में ही मिठास होती तो शुगर के रोगियों का शुगर रोटी, चावल जैसे सामान्य भोजन से नही बढ़ता। शुगर के रोगी तो कुछ भी खाते हैं तो उनका शुगर स्तर बढ़ जाता है। अर्थात शुगर तो हरेक भोज्य पदार्थ में होता है। किंतु हमें महसूस नही होता…और मीठापन से तृप्त होने के लिए चीनी से बनी मिठाई ही खाते हैं। इसी प्रकार ब्रम्ह सर्वव्यापी, कण-कण में विद्यमान होते हुए भी जब सगुन-साकार (मूर्ति) रूप में आ जाता है तब वह अपेक्षाकृत अधिक अवधारणा में आने योग्य, ग्राह्य हो जाता है। जबकि निराकार ब्रम्ह की धारणा बनानी बेहद कठिन होती है। मूर्ति की पूजा करने या न करने में सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत चुनाव की बात है..दर्शन में इसको लेकर कोई समस्या मुझे नही लगती। चूंकि हरेक भोज्य पदार्थ में मीठास महसूस करने के लिए कुछ चीजें आवश्यक होती हैं। जैसे-भूख खूब लगी हो,मन शांत हो,चित्त में प्रसन्नता हो। यदि यह सब है तो हरेक भोजन मधुर लगेगा। इसी प्रकार ईश्वर के निर्गुण-निराकार स्वरूप के बोध के लिए भी मन शांत, जिज्ञासु प्रवृत्ति,श्रद्धा भाव, विश्वास होना चाहिए। अब आप ही लोग सोचिए कि कितने लोग भोजन और भजन के समय उपरोक्त भाव एवं मुद्राओं में रहते हैं? जो उपरोक्त भाव में रहते हैं वे चीनी की बनी मिठाई न खाएं, मूर्ति पूजा न करें तो भी कोई बात नही,उनका काम चल जाएगा। बाकी लोगों को मूर्ति पूजा करने से रोकना, मिठाई खाने से रोकना वैसे ही है जैसे न हम खाएंगे न और किसी को खाने देंगे। अब तो बात यहाँ तक आ गई है कि लोग मिठाई न खा पाएं इसके लिए जबरन उन्हें रोकना है,मिठाई ही बेचने नही देना,गन्ने के खेत में आग लगा देना,गन्ना बोने वाले किसान की हत्या कर देना जैसा काम भी हो रहा है। सोचिए कि हम लोग एक छोटी सी बात को लेकर समाज में इतनी बड़ी समस्या क्यों खड़ा कर रहे हैं?
अमूर्त और मूर्त रूप ब्रम्ह को और ठीक से समझने के लिए उनके स्टेटिक और डायनामिक स्वरूप का बोध जरूरी है। यदि मैं यहाँ उनके ेूaूग्म् और ्ब्हaस्ग्म् स्वरूप को लिखूं तो लेख बहुत लंबा भी हो सकता है। जबकि सभी सम्प्रदाय इन्ही में बंटे हुए हैं या यह कह सकते हैं कि ब्रम्ह की ेूaूग्म्े एवं ्ब्हaस्ग्म्े में सभी सम्प्रदायों की अवधारणाओं का समावेश होकर सुन्दर समन्वयन हो सकता है। उस पर कभी एक स्वतंत्र लेख प्रस्तुत करूँगा।मैंने जब उक्त आधार पर साकार और निराकार स्वरूप को समझा तो वहाँ भी पूर्वोक्त बातें ही निकल कर आयीं। अर्थात अपने को तत्वज्ञानी मानने वाले भी यहां मुझे सही नही लगते, वे बिल्कुल एकांगी हो जाते है। इस प्रकार आप मूर्ति पूजा नही करना चाहते हैं तो ना करें …कोई बात नही। इससे किसी को कोई समस्या नही होगी। इसी प्रकार जिन्हें मूर्ति पूजा करनी है वे करें इससे भी किसी को कोई समस्या नही होनी चाहिए। मूर्ति पूजा का विरोध अथवा निराकार की आलोचना लोगों की नासमझी के अतिरिक्त और कुछ भी नही …