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बुजुर्गों की मनोदशा

हम अक्सर देखते हैं कि बुजुर्गों में अकेलेपन का आभास रहता है कभी सोचा है आपने, `ऐसा क्यों होता है?’ क्योंकि जब हम अपना जीवन वृद्धावस्था तक जी लेते हैं तो जीवन के उन खट्टे-मीठे पलों को किसी ना किसी से बताने की जिज्ञासा सी बनी रहती है अगर किसी से बताते भी है तो आज की पीढ़ी उठ कर चली जाती है और मजाक बना कर कहेगी `कि शुरू हो गए हमारे जमाने में ये होता था हमारे जमाने में वो होता था आखिर कौन सुने सारा दिन इनकी राम कथा।’
क्या कभी सोचा है इन शब्दों की चुभन दिल में कितनी होती है इसका आभास तब होता है जब हम इस अवस्था में पहुंचते हैं
जब कभी हम किसी मित्र या संबंधी को फोन करते हैं तब अगर फोन उसके दादा या दादी उठा लेता है तब बहुत समय हमारा चला जाता है क्योंकि वो बुजुर्ग खुश हो जाते हैं और अकेलेपन की भावना में बह कर आपको अपना समझकर बात करने लगते हैं।
फिर बाद में आप स्वयं अपने मित्र-संबंधी से कहेंगे कि `तू मुझे फोन कर लिया कर तेरे दादी या दादा अगर फोन उठा लेते हैं तो कम से कम एक घंटा मेरा चला जाता है।’ इसी छोटी सोच में हम जीते हैं ।
हम सबसे बड़ी गलतफहमी में रहते हैं कि हम सदैव जवान बने रहेंगे।
बुजुर्गों को सुनने से हमारा समय नहीं बर्बाद होता बल्कि उनके अनुभव से हमें जीवन में फायदा ही होता है।आजकल के बच्चे अपने ग्रंथों,धार्मिक ज्ञान में और इतिहास में बहुत पीछे चले गये है क्योंकि ज्यादातर ज्ञान बच्चे, घर में बड़ो से ही सीखते हैं परन्तु एकाकी परिवार होने के कारण संभव नहीं हो पाता। अपने जीवन काल में हमेशा आसपास समूह बनाकर रखिए और अपने स्वभाव को मिलनसार बनायें। सिर्फ अपने आप में अकेले मस्त ना रहे ताकि जब आप इस अवस्था में पहुंचे तो आपको सुनने वाला कोई ना कोई हो जिससे आप अपने अंतर्मन की बात कह सके और सुन सके। क्योंकि चुप रहने से इंसान गुमसुम हो जाता है।
कई बड़े शहरों के घर की न जाने कितनी खिड़कियों में बुजुर्ग पूरा दिन बैठे दिखते हैं अपने जीवन की पुरानी बातें सोचते रहते हैं और गुमसुम से दुनिया की दौड़ भाग को निहारते रहते हैं कि कहीं न कहीं इस भीड़ का हिस्सा वो भी थे और जरूरतों की व्यस्तता के कारण अपने परिवार को समय नहीं दे पाते थे और आज समय ने उन्हें `एकदम एकांत’ कर दिया। और इस गलती को समय बीत जाने पर भी हम सुधार नहीं सकते क्योंकि समय दोबारा वापस नहीं आता अगर हम शुरू से ही अपने बच्चों के सामने मिसाल बनते, अपने बुजुर्गों का सम्मान करते, उनको समय देते, उनके पास कुछ पल कहते-सुनते तो आज के बच्चों को शिक्षा मिलती। वो भी वही करते जो वह अपने बड़ों को देखते। इस एकांत का कहीं न कहीं जिम्मेदार? हम ही स्वयं है।
जीवन में न जाने कितने ही उतार चढ़ाव क्यों ना आये हो अगर हम अपने माता-पिता और अपने बच्चो की एक मजबूत कड़ी बनाकर साथ चलते तो हमारी आने वाली पीढ़ी भी आधुनिक चलन को देखकर इतना भ्रमित नहीं होगी अपितु अपने घर के बुजुर्गों को हमेशा खुश रखेगी। कभी-कभी बुजुर्गों का तजुर्बा भी परिवार को संभालने में मदद करता है। आज के समय में हम अगर बच्चों से भी जोर से बोल देते हैं तो उन्हें बुरा लग जाता है मगर घर पर बुजुर्गों का तिरस्कार हम पल पल करते रहते हैं जबकि उस अवस्था में सम्मान की अत्यधिक आवश्यकता होती है जब हमे किसी चीज की जरूरत होती है तो हम बहुत प्यार से अपने माता-पिता से मांग लेते थे पर जब वो हम पर निर्भर हो जाते हैं तो हम ऊबने लगते हैं और चिड़चिड़ा जाते हैं। हमारे माता-पिता की सबसे बड़ी गलती ये है कि वो अपनी परेशानियों का एहसास अपने बच्चों को नहीं कराते हमेशा उन्हें हर संघर्ष से दूर रखते है जबकि कर्तव्य निभाने के साथ-साथ हमे अपने बच्चों को भी उनके कर्तव्यो का एहसास कराना चाहिए। बुजुर्गों का सम्मान शुरू से करना सिखाना चाहिए यदि हम स्वयं मिसाल नहीं बने तो बच्चों में कहीं न कहीं आगे चलकर बुजुर्गों के प्रति सम्मान नहीं रहेगा।
क्योंकि सोच में बदलाव बेहद जरूरी है।

– गरिमा बाजपेई

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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