सरहुल
सरहुल
in

Sarhul | प्रकृति पर्व सरहुल | सरहुल कब और क्यों मनाया जाता है

एक प्रख्यात लेखक और चिंतक का कथन है कि ” आज विश्व का बौद्धिक- जगत आदिवासियों के जीवन, परिवेश, रहन- सहन ,पर्व- त्योहार , दर्शन आदि के बारे में जानने- समझने के लिए उत्सुक है।आदिवासियों के पर्व- त्योहार केवल नाच- गान करने , हंड़िया पीने ,पशु- पक्षी का बलि चढ़ाने का अनुष्ठान भर नही है , बल्कि इनमें प्रकृति ,मनुष्य और धरती से जुड़ी सहजीविता, एकजुटता और उनके समग्र जीवन- चक्र को सम्मानपूर्वक सृजनशील, उर्वर बनाए रखने के लिए नए संकल्प और उत्साह के साथ जीने का संदेश भी समाहित है…-। ”
प्रकृति को समर्पित सरहुल पर्व आदिवासियों का प्रमुख पावन त्योहार है।इस त्योहार को मनाने के बाद ही नई फसल का उपयोग किया जाता है।इस साल 4 अप्रैल को यह त्योहार मनाया गया।
हर साल यह त्योहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारंभ होता है।यह त्योहार झारखंड के अलावे बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ , मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों , नेपाल, भूटान और बांग्लादेश में भी मनाया जाता है।यह महोत्सव वसंत ऋतु में मनाया जाता है।
सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘ सर ‘और ‘ हुल ‘ ।’ सर ‘ का अर्थ है- सखुआ का फूल और ‘ हुल ‘ का अर्थ क्रांति होता है।इस प्रकार सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया है।
इस त्योहार में सरना स्थल पर पारम्परिक रूप से पूजा की जाती है। बैगा द्वारा साल के पेड़ की पूजा श्रद्धापूर्वक उत्साह और पवित्रता के साथ की जाती है।साल की शाखाएं फूलों से सजी होती हैं।इन नए फूलों से देवताओं की पूजा की जाती हैं। सरना में महादेव का निवास माना जाता है।फिर घड़े में जल रखकर सरना के फूल से पानी छींटा जाता है।
पूजा- अर्चना के बाद सामूहिक रूप से प्रार्थना कर क्षेत्र की खुशहाली की कामना की जाती है और पर्यावरण की सुरक्षा का संकल्प लिया जाता है। ठीक इसी समय सरहुल- नृत्य प्रारंभ किया जाता है। सरहुल नृत्य की अनुपम छटा का मनोरम दृश्य को जरा निहारिए- ” सरहुल के दिन धरती एक कुंवारी कन्या का रूप लेती है जिसकी शादी सूरज से होती है।अहा! प्रकृति का कितना सुंदर रूप है यह पर्व जहाँ धरती बेटी है ,पेड़ भाई हैं और फूलों के पौधे बहने हैं।तरू के कोमल हरित किसलयों के बीच नव पल्लव ललाम धरती बेटी की मांग का सिन्दूर है जो (अपूर्व आभा के साथ चमक रहा है और प्रकृति के आँगन में दूर खड़ा आदिवासी युवक अप्रतिम सौन्दर्य को निहार कर मुग्ध हो रहा है। धरती बेटी की शादी में शरीक होना अपना सौभाग्य मानने वाले आदिवासी नवयुवक अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए लालायित और उत्साहित हैं ।इस तरह ये आदिवासी प्रकृति के साथ मिलकर एक परिवार का सृजन कर रहे हैं और यह संदेश प्रेषित कर रहें हैं कि सुखमय जीवन और परिवार की आकांक्षा है तो प्रकृति के साथ कदम मिलाकर चलना सीखो। ”

आदिवासियों की मान्यता है कि जो नाचेगा वही बचेगा। उनके लिए नृत्य ही जीवन है । नृत्य और गायन ही संस्कृति है।नाचते- गाते हुए काम करना और काम करते हुए नाचना-गाना। सुखमय जीवन की आकांक्षा है तो तनाव रहित सहज जीवन जीना सीखो। सुख बाह्य संसाधनों में नहीं अपितु आन्तरिक उत्साह और आनन्द में है।आनन्द चमकीले- आकर्षक संसाधनों का मोहताज नहीं।वनप्रांतों के निःसृत निर्झरों के कलकल निनाद से निनादित कर्णप्रिय मधुर संगीत के वातावरण में और मधुमास के सानिध्य में जब आदिवासी युवतियां पैरों में नुपुर बाँधकर और अपने जुड़े में बगुले के पंख की कलगी लगाकर पीला साफा बाँधे नवयुवकों के कमर में लटकते मांदर की थाप और झांझ पर थिरकने लगती हैं और सुरीली तान अलापती हैं तो गजब का समां बँध जाता है। लाल पाड़ ( पैड ) की साड़ी पहनी ,गीतों की लय और तोड़ के अनुसार पद संचालन करती हुई ये वन- बालाएं शुद्धता- पावनता और शालीनता की देवियाँ प्रतीत होती हैं। इस उत्सव में सफेद रंग शुद्धता का और लाल रंग संघर्ष का प्रतीक है ।सफेद सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरा बोंगा का
प्रतीक है ।सरहुल के गीत की एक- दो पंक्ति की झलक देखिए-
” हो होरे का फुला फुली गेलक, गोटा दुनियां झिंगोर झोगोंर सरई फूल फुली गेलक…।”

अर्थात् सरई फूल खिल गया है, फूलों को देखकर अच्छा लग रहा है….।” तथा, वसंत ऋतु दोय तेवरलेदा सुकु
राशिका कारोबार पारिड़ी तना…।”
अर्थात् वसंत ऋतु का आगमन हो गया है और मन में खुशी उमड़ रही है।” सचमुच , आदिवासियों की आत्मा गीतों में बसती है। उनकी आत्मा मांदर , ढ़ोल , नगाड़ों और बांसुरी में बसती है। मुण्डारी में एक गाना है-” सिंगी दोबू सियू कामिया । अयुब नपंग दुमंग दंगोड़ी । “ अर्थात् दिनभर हल चलाएगें, काम करेगें और रात भर मांदर की थाप होगी।आदिवासियों के जीवट और संगीत- प्रेम की झलक इस बात में मिलती है कि ये लोग कई किलोमीटर दूर जंगल और पहाड़ों से होकर रात में भी अखाड़ा में नृत्य- संगीत के लिए आते हैं।अभावों से भरे जीवन में भी संस्कृति के पोषक ये आदिवासी नृत्य और गायन में मग्न रहते हैं। इन गीतों और नृत्यों के माध्यम से आदिवासी जन – जीवन के यथार्थ,
लोक- गंध ,सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और जीवन-शैली को समझा जा सकता है।इन गीतों में मिट्टी की गंध , जंगलों
की हरियाली और झरनों का संगीत विद्यमान रहता है । लोक-गंध में रचे-बसे ये गीत प्रेम और प्रकृति के यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते है । इन गीतों में आदिवासी जीवन- दर्शन, प्रेम, मिलन और विरह के रोचक और मनमोहक वर्णन मिलते हैं। आदिवासी जनजीवन के पारखी मीकर रोशनार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द फ्लाइंग हाॅर्स ऑफ धर्मेश” में लिखा है कि सखुए का पेड़ आदिवासियों के लिए सुरक्षा,शांति और खुशहाल जीवन का प्रतीक माना गया है।”

सरहुल
सरहुल

सरहुल पर्व में प्रयुक्त कुछ प्रतीकों पर गौर किया जाए तो आदिवासियों का प्रकृति – प्रेम , आध्यात्मिकता , सर्वव्यापी ईश्वरीय उपस्थिति का एहसास, ईश्वरीय उपासना में सृष्टि के संसाधनों के इस्तेमाल ( तेरा दिया हुआ, तुमको अर्पण) और सहअस्तित्व के भाव निखर उठते हैं। आदिवासियों की अद्वितीय संस्कृति से संसार को परिचित कराने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी और सांस्कृतिक दूत डॉक्टर रामदयाल मुंडा सरहुल को लोकप्रिय बनाने में अन्यतम योगदान दिए थे। वे अमेरिका से प्रोफेसर की नौकरी का परित्याग कर स्वदेश लौट आए और आदिवासी संस्कृति के अन्तरराष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में विपुल ख्याति अर्जित की। वे शिक्षा- शास्त्र और समाज शास्त्र के लेखक और कलाकार थे ।उन्होंने आदिवासीयों के हितों की रक्षा के लिए झारखंड से संयुक्त राष्ट्र संघ तक अपनी आवाजों को बुलन्द की।
वे रांची विश्वविद्यालय रांची के कुलपति भी रहे। वे आदिवासी उत्थान के लिए आजीवन अथक परिश्रम के साथ कार्य करते रहे। अपने देश में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिया गया और पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
वे राज्य सभा भेजे गए और इस प्रकार देश के सर्वोच्च सदन की गरिमा को बढ़ाए। उनके द्वारा रचित “सरहुल मंत्र ”
की चर्चा यहाँ अपेक्षित है। इस मंत्र में वे स्वर्ग के परमेश्वर से लेकर धरती की धरती माई, शेक्सपियर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सिदो- कान्हो , चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गाँधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा आदि सैकड़ों दिवंगत व्यक्तियों को एक साथ बुलाकर पंक्ति में बैठने का आमंत्रण देते हैं और कहते हैं-
“हम तोहरे के बुलात ही , हम तोहरे
से बिनती करत ही , हमरे संग तनी
बैठ लेवा , हमरा संग तनी बतियाय
लेवा , एक दोना हंड़िया के रस ,एक
पतरी लेटवा के भात, हमर संग पी लेवा , हमर संग खाय लेवा।”
अहा! कितना सुंदर ” वसुधैव कुटुम्बकम ” का संदेश छिपा है इस ” सरहुल मंत्र ” में।
सभी आदिवासी भाईयों – बहनो को सरहुल पर्व पर बधाई और अशेष शुभकामनाएं।
जोहार ! नमस्कार!!

– अरूण कुमार यादव

ये भी पढ़ें ..

लेखक वायलर रामवर्मा का जीवन परिचय

Harishankar Parsai : हरिशंकर परसाई

Mahadevi Verma : महादेवी वर्मा का जीवन परिचय

महाप्राण निराला !

What do you think?

Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

download 1 1

ड्रोन क्या है और यह कैसे उड़ता है ?

एंग्री यंग मैन

विजय : एंग्री यंग मैन के 50 साल