ख़ुदाए-सुख़न मीर तकी मीर
से जुड़े कुछ मजेदार वाकिये-
(१)
एक दफ़ा नवाब की सवारी लखनऊ के एक मस्जिद के बगल से गुज़री तो वहाँ मौज़ूद सभी लोग खड़े हो गए और नवाब को सलाम किया. मीर फटेहाल हालत में सीढियों पर बैठे थे. पर नवाब के इस्तकबाल में वो उठ खड़े नही हुए.
सवारी वहाँ से गुज़र गई. नवाब ने जब अपने मुलाज़िम से पूछा यह कौन गुस्ताख़ शख़्स था तो उसने कहा, हज़ूर `यह वही मीर तकी मीर थे'. अगले दिन नवाब ने एक मोटी रकम उन्हें भिजवायी. मीर ने पैसे वापस करते हुए कहा, `एक शायर को इज़्ज़त अता करने का यह तरीक़ा नहीं है. क्या नवाब ख़ुद चल कर नहीं आ सकते थे'.
(२)
मीर फटेहाल स्थिति में दिल्ली से लखनऊ तशरीफ़ लाए और एक सराय में क़याम किया (ठहरे). एक दिन उन्हें पता चला कि एक मुशायरे का आयोजन किया गया है तो अपने आप को वहाँ जाने से रोक न सके. उनके हुलिये पर नौजवान उनकी तरफ देखकर हंस पड़े. किसी ने उनसे पूछा- `हज़ूर का वतन कहाँ है' तो उन्होंने फ़रमाया-
क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो
हम को ग़रीब जान के हँस हँस पुकार के
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब
रहते थे मुंतख़ब ही जहाँ रोज़गार के
उस को फ़लक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
सबको जब हाल मालूम हुआ तो वो शर्मिंदा हुए माज़रत तलब की, यानी खेद व्यक्त किया क्षमा याचना की. अगले दिन शहर में यह बात फैल गई की मीर तकी मीर लखनऊ में तशरीफ़ लाए हैं.
र्दूा--आवाम के बीच यह कत'अ मीर से मनसूब है और आबे हयात में इसका ज़िक्र भी है. मगर दूसरे शोधकर्ता इससे सहमत नहीं हैं और इसे किसी अज्ञात शायर का मानते हैं.
(३)
आपने बशीर बद्र का यह शेर ज़रूर सुना होगा-
तफ़सील से क्या बतायें हमारे भी अहद में
तादाद शाइरों की वही पौने तीन है
शाइरों की तादाद `पौने तीन होने का मा'नी क्या है?
एक वाकया सुनें फिर आपको समझ में आएगा.
किसी ने मीर तकी मीर से पूछा कि दिल्ली में इस वक़्त कितने शायर हैं. मीर ने जवाब दिया कि दिल्ली में फ़िलहाल ढाई शायर हैं- एक मैं ख़ुद, दूसरा रफ़ी सौदा और तीसरा मीर दद.
`जब उनसे मीर सोज़ के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा हमने शरीफ़ों में ऐसे तख़ल्लुस नहीं सुने हैं.
दरअसल रूबाई, कसीदा मसनवी और ग़ज़ल- इन चारों विधाओं में रचना करने वाले ही पूर्ण शाइर कहलाते हैं. मीर तकी मीर और रफ़ी सौदा ने इन चारों विधाओं में क़लम चलाए और मुक्ममल शायर हुए जबकि मीर दर्द ने केवल रुबाई और ग़ज़ल कहा. इसलिए उन्हें आधा शायर कहा गया.
मीर सोज़ ने केवल ग़ज़ल में हाथ आजमाया. इसलिए एक चौथाई में आ गए. इस तरह पौने तीन शायर हुए.
(४)
मीर को अपने मामू सिराज की बेटी यानी ममेरी बहन से मोहब्बत हो गई थी. यह बात दूसरों को पता चली तो, मीर को मामू का घर और शहर छोड़ना पड़ा. मीर को दीवानगी में पाग़लपन का दौरा भी पड़ा. उन दिनों उन्हें चाँद में अपने महबूब की सूरत दिखती थी. इसी संदर्भ में अहमद फ़राज़ ने शेर कहा-
आशिक़ी में `मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो
मीर को ज़ंजीर में जकड कर तहखाने तक में रखा गया. उनके पिता की एक शिष्या ने उनका इलाज करवाया और वो स्वस्थ हो सके.
(५)
कहते हैं एक दफ़ा दिल्ली से लखनऊ आने के दौरान मीर अपने किसी भी हमस़फर से बात नहीं की. और साथ ही कान में रुई डाल लिया और पूरे सफ़र कान में रुई डाले रखा. जब उन्होंने लोगों की जबान सुनी तो उन्हें लगा कि उनके साथ यात्रा करते मेरी भी ज़बान खराब हो जाएगी.
मीर का मानना था की ज़बाने गै़र से अपनी जु़बान बिगड़ती है. पुराने लोग अपनी भाषा का बहुत ख्य़ाल रखते थे.उनका मानना था कि अगर कम पर लिखे लोगों से बात की जाए तो उनकी भाषा पर हमारी ज़बान पर पड़ेगा. मीर भी इसी ख्य़ाल के आदमी थे. ग़ालिब के जीवन से जुड़े कुछ मज़ेदार किस्से-
जीवन की कठोरता को, गहरी से गहरी दुखद घटना को ग़ालिब ने अपने स्वभाव पर हावी नहीं होने दिया. हर विपरीत परिस्थिति में मुस्कुराने का मद्दा रखते थे ग़ालिब. उनके पत्र पढ़ेंगे तो उनका हास्य व्यंग्य के मिज़ाज के बारे में कोई शक़ नहीं रह जाएगा. उनके हाज़िर जवाबी और खुशमिज़ाजी को ग़ालिब के लतीफ़े और विनोद पूर्ण वाकये बतौर सबूत पेश किये जा सकते हैं. उनके स्वभाव की महानता और विराटता ग़ालिब के शालीन हास्यपूर्ण अश'आर में भी मार्मिक और प्रभावी रूप से उभर के आए हैं.
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
काशिद के आते-आते ख़त इक और लिख रखूं
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फ़ाका मस्ती एक दिन
ग़ालिब को आम बेहद पसंद था. उनके दोस्त दूर-दूर से उनके लिए उम्दा क़िस्म के आम भेजते थे. ग़ालिब ख़ुद भी दोस्तों से तकाज़ा कर करके आम मंगवाते थे. आम पर उनके कुछ विनोद पूर्ण वाकया देखें-
(१)
ग़ालिब को आम बहुत पसंद था जबकि उनके मित्र हकीम रजीउद्दीन खान को आम नहीं भाता था. एक दिन दोनों ग़ालिब के मकान पर ही बरामदे में बैठे थे. एक गधे वाला अपने गधे को लिए हुए गली से गुज़रा. आम के छिलके पड़े थे, गधे ने सूँघकर छोड़ दिया. हकीम साहब ने कहा `देखिए आम ऐसी चीज़ है जिसे गधा भी नहीं खाता.' ग़ालिब में तपाक से कहा `बेशक गधा नहीं खाता'. (यानी गधे ही आम नहीं खाते).
(२)
आम तोहफ़े की शक्ल में आता था. ख़ुद बाज़ार से मंगवाते थे, दूर-दूर से सौगात के तौर पर आता था. मगर ग़ालिब का जी नहीं भरता था. एक मजलिस में सभी दोस्त अपनी अपनी राय आम के बारे में दे रहे थे, उसकी ख़ूबियाँ गिना रहे थे. सब ने जब अपनी बात पूरी की तो मौलाना फ़ज़ल हक ने ग़ालिब से कहा कि तुम भी अपनी राय बयान करो. ग़ालिब ने फरमाया- भई मेरी राय में तो आम में सिर्फ दो बातें होनी चाहिए `मीठा हो और बहुत हो'. वहां मौज़ूद सभी लोग हंस पड़े.
(३)
एक रोज़ बहादुर शाह ज़फ़र अपने चंद मूसाहिबों के साथ जिनमें ग़ालिब भी थे, आम के बगीचे में टहल रहे थे. इस बगीचे का आम केवल बादशाह, शाही अधिकारियों या महल के बेग़म के सिवा किसी और को मयस्सर नहीं था. ग़ालिब कई बार-बार आमों की तरफ ग़ौर से देखते थे. बादशाह ने पूछा `मिर्ज़ा इस तरह ग़ौर से क्या देखते हो' मिर्ज़ा ने हाथ बांधकर अर्ज़ किया-
`दाने-दाने पर उसे खाने वाले,उसके बाप दादा का नाम लिखा होता है. यहाँ देखता हूँ किसी दाने पर मेरा और मेरे बाप दादा का नाम लिखा है या नहीं. बादशाह मुस्कुराये और उसी रोज़ एक बहंगी उम्दा उम्दा आमों को मिर्ज़ा को भिजवाई.
ग़ालिब से जुड़े कुछ और मज़ेदार वाकिये-
(४)
एक शाम मिर्ज़ा ग़ालिब को शराब न मिली तो नमाज़ पढ़ने चले गये. इतने में उनका एक शागिर्द आया और उसे मालूम हुआ कि मिर्ज़ा को आज शराब नहीं मिली, चुनांचे उसने शराब का इंतज़ाम किया और मस्जिद के सामने पहुंचा वहाँ से मिर्ज़ा को बोतल दिखाई. बोतल देखते ही मिर्ज़ा वुज़ू करने के बाद मस्जिद से निकलने लगे, तो किसी ने कहा, `ये क्या कि बग़ैर नमाज़ पढ़े चल दिए?'
मिर्ज़ा बोले, `जिस चीज़ के लिए दुआ माँगनी थी, वो तो यूँ ही मिल गई.'
(५)
एक-बार दिल्ली में रात गये किसी मुशायरे या दावत से मिर्ज़ा साहिब, मौलाना फ़ैज़ उल-हसन और फ़ैज़ सहारनपुरी वापस आ रहे थे. रास्ते में एक तंग-ओ-तारीक गली से गुज़र रहे थे कि आगे वहीं एक गधा खड़ा था. मौलाना ने ये देखकर कहा, `मिर्ज़ा साहिब, दिल्ली में गधे बहुत हैं.' `नहीं हज़रत, बाहर से आ जाते हैं.' मौलाना फ़ैज़ उल-हसन झेंप कर चुप हो रहे.
(६)
एक दिन सूरज ढल रहा था, सय्यद सरदार मिर्जा, ग़ालिब से मिलने को आये. जब थोड़ी देर के बाद वो जाने लगे तो ग़ालिब ख़ुद शम्मा लेकर फ़र्श के किनारे तक आये ताकि सय्यद साहिब अपना जूता रोशनी में देखकर पहन लें। उन्होंने कहा, `क़िबला! आपने क्यों तकलीफ़ फ़रमाई? मैं जूता ख़ुद ही पहन लेता.' मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, `मैं आपका जूता दिखाने को शम्मा नहीं लिया, बल्कि इसलिए लाया हूँ कि कहीं आप मेरा जूता न पहन जाएं.'
भानु झा
भागलपुर ,बिहार