चूड़ियों की चाहत
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चूड़ियों की चाहत

चूड़ियों की चाहत : टूटी हुई रंग-बिरंगी चूड़ियाँ जब फैक्ट्री में इकट्ठा हुईं तो अपने-अपने दुखों की गठरी खोलकर बैठ गयीं । हरे कांच की चूड़ियाँ दूसरी रंग की चूड़ियों के जख्म कुरेदती हुईं अपने गम का बखान करती रहीं । इसी क्रम में हरी चूड़ियों ने लाल रंग की चूड़ियों के ढेर से पूछा – ‘क्यों री! तू बड़ी चूर-चूर होकर टूटी है ?’ लाल चूड़ियों ने दुखी होते हुए कहा ‘हाँ! एक्सीडेंट में अपने जवान बेटे की मौत होने पर उसकी माँ बहुत गुस्से में थी । उसने मुझे बुरी तरह से तोड़ा । जिसके हाथों में खनककर मैं पूरे घर को खुश कर देती थी, मेरी टूटने की आवाज से उसके साथ-साथ उसका मायका जार-जार हो रोया ।’ ‘फिर तू गमजदा क्यों है! तेरे टूटने पर लोग दुखी तो थे, यह क्या कम है!’
‘क्योंकि मेरी स्वामिनी को उसकी सास बार-बार ‘कुलक्षणी कहीं की! मेरे बेटे को खा गई !’ ऐसे अपशब्द कहकर कोस रही थी । मोहल्ले वाले भी उसे ही अपशगुनी कह रहे थे ।’
‘मेरा दर्द तेरे दर्द से अधिक है । मैं तो उन हाथों से टूटी हूँ जो अपने पति से रोज ही पिटती रहती थीं ।’ हरी चूड़ियों ने फिर जाहिर किया कि उनसे बढ़कर किसी का भी गम नहीं ।
चुड़िहार के हाथों से टूटी ढेर की चूड़ियाँ बोल उठी- ‘तुम लोगों की स्थिति फिर भी ठीक है । कम से कम गम है कि गैरों ने तोड़ा ! हमें तो हमारे ही मालिक ने तोड़ डाला, बेरंग-पुरानी कहकर ।’
‘सही कह रही हो! अपनी ही बहनों के कारण, अपने ही मालिक के हाथों से टूटने का दर्द बहुत अपमानजनक होता है ।’ सभी रंग की चूड़ियाँ एक साथ बोलती हुई उनके जख्मों को सहलाने लगीं ।
‘कुछ टूटी-चूड़ियाँ यूँ कम मात्रा में होने पर भी क्यों अलग-थलग होकर पड़ी हैं ?’
‘हाँ! देख तो उन्हें! वे चूड़ियाँ रोते-रोते मुस्कुरा भी रही हैं ।’
‘हाँ-हाँ ! चल उन्हीं से पूछते हैं कि आखिर क्या बात है ।’
पूछते ही वो चूड़ियाँ बोली- ‘हम शहीद की विधवा के हाथों की चूड़ियाँ हैं । हमें जब तोड़ा जाने लगा तो परिवार के लोगों ने ही रोक दिया यह कहते हुए कि ‘वह मरा नहीं है, शहीद हुआ है ।’

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तभी एक पौना आकर जिसमें कुछ टूटी चूड़ियाँ पहले से ही थीं, सभी ढेरों की टूटी चूड़ियों को अपने दांतो में भींच उठाकर तपती भट्टी की ओर ले जाने लगा ।
सभी चूड़ियाँ पौने में एक साथ हो ऐसे गड्डमड्ड हुई जैसे बिछड़ने से पहले एक दूसरे से गले मिल रही हों ।
लाल चूड़ियों ने मुस्कराकर कहा – ‘सभी दुआ करो कि हम लोग अल्हड़ किशोरियों के या फिर खुशहाल सुहागिनों के हाथों में खनके ।’
यह सुनकर सभी टूटी चूड़ियों की खिलखिलाट के बीच पौने के एक कोने में पड़े ढेर की सिसकती आवाज़ गूँजी – ‘किसी के हाथों में खनकूँ या फिर कुछ पलों में टूट जाऊँ लेकिन भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि अगले जन्म में बलात्कारियों की वजह से न टूटूं ।
‘क्या हुआ था तुम्हारे साथ.. ?’ उनसे सहानुभूति दिखाती हुई हरी चूड़ियों ने उन्हें कुरेदा ।
‘ये जो पीली टूटी चूड़ियाँ देख रही हो न, ये एक पाँच साल की बच्ची के हाथों की चूड़ियाँ हैं । उसने मेले में माँ से जिद करके पहनी थीं । खुशी से उछलती-कूदती माँ के नजरों से ओझल क्या हुई ! दरिंदों ने उसको नोंच-खसोट लिया ।’ उन चूड़ियों का दर्द सुनकर सभी टूटी चूड़ियों को अपने गम की गठरी बड़ी छोटी और हल्की लगने लगी ।
सहसा दहकती भट्टी में सभी पिघलती हुई एकाकार हो दमक उठी थीं । लग रहा था जैसे कि कह रही हों कि अगली बार ‘हाथों में चूड़ियाँ पहन लो’ कहावत को वो झुठला देंगी ।

——-सविता मिश्रा ‘अक्षजा’, आगरा, यू.पी.

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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