हिंदी सिनेमा के गोल्डन समय की यादों को अगर जानना हो तो प्राइम वीडियो पर एक अफलातून वेब सीरीज ‘ज्यूबिली’ आई है। निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी आप को इस सीरीज के माध्यम से मुंबई की उस दुनिया में ले जाते हैं, जिसे हम मायानगरी के रूप में जानते हैं और जिसके बारे हमने केवल पढ़ा-सुना है।
50 के दशक में हिंदी सिनेमा का व्यवसाय किस तरह आकार ले रहा था, इस पर भारत-पाकिस्तान के विभाजन का कैसा असर पड़ा था, इसका इस सीरीज में मोहक चित्रण है। सीरीज में मुंबई की राय टाकीज नाम की फिल्म कंपनी, उसके मालिक श्रीकांत राय, उनकी फिल्म स्टार पत्नी सुमित्रा और कंपनी के एक नवोदित एक्टर मदन कुमार की कहानी है।
दिलचस्प बात यह है कि इन तीनों पात्रों की असली शख्सियत पर आधारित है (सीरीज में बाकी के पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं)। हिंदी सिनेमा में एक्टर्स-ऐक्ट्रेस की तमाम मजेदार दंतकथाएं हैं। इसमें एक मशहूर दंतकथा कुमुदलाल कुंजलाल गांगुली की अशोक कुमार बनने की है। वह हिमांशु राय और देविका रानी की बाॅम्बे टाॅकीज में लैब टेक्निशियन के रूप में काम करते थे और अप्रतिम लगन और होशियारी से हिंदी फिल्मों के पहले हीरो के रूप में स्थापित हुए थे।
‘ज्युबिली’ में विक्रमादित्य मोटवानी ने इन तीन लोगों की कहानी का पतला कोना पकड़ कर उसके आसपास एक मनोरंजक वेब सीरीज का पोत विकसित किया है। सीरीज की कहानी के अनुसार, राय टाॅकीज जमशेद खान नाम के एक नए एक्टर को मदन कुमार के रूप में अपनी नई फिल्म में लांच करना चाहती थी। पर सुमित्रा जमशेद से प्यार करने लगी और मुंबई छोड़ कर लखनऊ भाग जाती है।
श्रीकांत अपनी फिल्म पूरी करने के लिए उन दोनों को वापस लाने के लिए एक टेक्निशियन विनोद को लखनऊ भेजते हैं। पर वापस लौटते समय विभाजन के दंगों में जमशेद की हत्या हो जाती है (या फिर विनोद इस तरह की साजिश रचता है?)। अब अकेली सुमित्रा ही मुंबई वापस आती है। अब बिना जमशेद के फिल्म कैसे बने? श्रीकांत के साथ मिल कर फिल्म की उस भूमिका में विनोद खुद को व्यवस्थित कर देता है और इस तरह मदन कुमार के नाम का हिंदी सिनेमा को एक होनहार एक्टर मिलता है।
कुछ ऐसा ही बाॅम्बे टाॅकीज में हुआ था। मुंबई के मलाड उपनगर में हिमांशु राय और देविका रानी चौधरी ने (रानी मुखर्जी के दादा के बड़े भाई) शशधर मुखर्जी की मदद से बाॅम्बे टाॅकीज नाम से स्टूडियो की स्थापना की थी। इन्हीं शशधर मुखर्जी का किशोरावस्था में सती देवी गांगुली नाम की एक बंगाली लड़की से विवाह हुआ था। सती देवी के तीन भाई थे, जो बाद में मशहूर एक्टर बने- अशोक कुमार (कुमुद), अनूप कुमार (कल्याण), किशोर कुमार (आभास)।
जीजाजी शशधर के प्रताप से साले कुमुदलाल को नई-नई शुरू हुई बाॅम्बे टाॅकीज में नौकरी मिल गई थी। कुमुदलाल परीक्षा में फेल हो गए थे, जिससे घर में झगड़ा हुआ तो नाराज हो कर बहन के पास मुंबई आ गए थे। यहां जीजाजी अपने साथ बाॅम्बे टाॅकीज की लैब में ले गए थे। यहां मजा आ गया तो वह गांव जाना भूल गए।
कुमुदलाल ने पांच सालों तक लैब में काम किया। इस दौरान टाॅकीज की दूसरी फिल्म ‘जीवन नैया’ से उनका जन्म अशोक कुमार के रूप में हुआ। उनका यह जन्म ‘दिलचस्प’ है। टाॅकीज की पहली फिल्म ‘जवानी की हवा’ (1935) थी। जिसमें देविका रानी के साथ नजमुल हसन नाम का हीरो था। नजमुल हसन के बारे में कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। वह लंबा-पतला और सुंदर था। वह लखनऊ के किसी नवाबी घराने का था। वह कानून की पढ़ाई छोड़ कर मुंबई आया था, जहां हिमांशु राय ने बाॅम्बे टाॅकीज की पहली फिल्म के लिए साइन किया था। इस फिल्म के पूरी होने तक में फिल्म की हीरोइन और मालकिन देविका रानी से उसे प्यार हो गया और दोनों हिमांशु राय, बाॅम्बे टाॅकीज और मुंबई को छोड़ कर भाग गए।
हिमांशु राय ‘जवानी की हवा’ के बाद दोनों की भूमिका वाली ‘जीवन नैया’ शुरू करने वाले थे। स्टूडियो की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। पहली ही फिल्म में उसकी हीरोइन और हीरो भाग जाए, यह कैसे रास आएगा? फिर हीरोइन हिमांशु राय की पत्नी थी। मालिक और पति दोनों के अहम का सवाल था। हिमांशु राय ने शशधर मुखर्जी को भेज कर दोनों प्रेमियों को कलकत्ता के ग्रांड होटल में खोज निकाला। शशधर ने देविका को वापस आने के लिए मना लिया। हसन कलकत्ता में ही रह गया।
मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो इस बारे में लिखते हैं, ‘हसन मायावी नगरी की हीरोइन को असली दुनिया में खींच ले गया था। पर उसे इन लोगों को शामिल होने के लिए कलकत्ता में छोड़ दिया गया था, जिन्हें स्नेह से कम राजनैतिक, धार्मिक और भौतिक कारणों से उसके प्रियजन त्याग देंगे यह निश्चित था। जहां तक उन दृश्यों की बात है, जो पहले शूट कर लिए गए थे, वह अब कूड़ा हो गए थे। अब सवाल यह था कि उसकी जगह कौन ले?”
जवाब था कुमुदलाल गांगुली। ऐसा कहा जाता है कि हिमांशु राय नजमुल हसन जैसे दूसरे आकर्षक हीरो को ले कर फिर से देविका रानी और फिल्म को खोना नहीं चाहते थे। जिससे किसे लिया जाए, इस उथलपुथल में कुमुदलाल का नाम आया। कुमुदलाल औसतन सुंदर था और ऊपर से हिमांशु का नौकर भी था। हिमांशु राय ने फिल्म की कहानी और उस समय की सुपरस्टार देविका रानी में अधिक भरोसा था। परिणामस्वरूप बाॅम्बे टाॅकीज की दूसरी फिल्म ‘जीवन नैया’ में कुमुदलाल को अशोक कुमार के रूप में लांच करने का फैसला लिया गया।
एक दुर्घटना से शुरू हुए इस कैरियर के बाद तो अशोक कुमार 6 दशक तक हिंदी फिल्मों में छाए रहे। इतना ही नहीं, 1940 में हिमांशु राय की मौत और देविका रानी के रिटायर होने के बाद वह शशधर मुखर्जी की हिस्सेदारी में उन्होंने बाॅम्बे टाॅकीज खरीद लिया था।
फिल्म ‘जीवन नैया’ में एक तवायफ की बेटी लता (देविका) का विवाह शहर के एक धनवान बेटे रणजीत (अशोक कुमार) के साथ होता है। परंतु चंद (एस एन त्रिपाठी) नाम का एक खलनायक लड़की को ब्लैकमेल करता है। इसमें रणजीत उसे छोड़ देता है फिर बाद में दोनों किस तरह सुखपूर्वक इकट्ठा होते हैं, इसकी कहानी थी। हिमांशु राय के दोस्त और बावेरिया के फिल्ममेकर फ्रांज ओस्टेन निर्देशित ‘जीवन नैया’ बाक्स आफिस पर सफल रही थी। 1936 में देविका के साथ आई उनकी फिल्म ‘अछूत कन्या’ से स्टार बन गए थे।
अशोक कुमार में कैसी प्रतिभा थी, इसका एक उदाहरण फिल्म ‘जीवन नैया’ का एक गाना ‘कोई हमदम न रहा…’ है, जो एस कश्यप नाम के गीतकार के शब्दों में और सरस्वती देवी नाम की संगीतकार की धुन में यह गाना अशोक कुमार ने खुद गाया था। फिल्म के साथ यह गाना भी हिट रहा था।
तीस साल बाद 1960 में अशोक कुमार के छोटे भाई किशोर कुमार ने खुद की कहानी पर ‘झुमरू’ बनाई थी, उसमें उन्होंने ‘कोई हमदम न रहा…’ गाना गाया था। यह गाना अशोक कुमार वाले गाने से इतना ज्यादा हिट रहा कि आज भी यह गाना उतना ही लोकप्रिय है।
किशोर कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं छोटा था, तब दादा मुनि यह गाना गाते थे। यह गाना मुझे इतना अच्छा लगता था कि अपने होम प्रोडक्शन में मुझे इसकी पहली लाइन लेनी थी। किशोर कुमार ने बड़े भाई से परमीशन मांगी तो दादा मुनि ने शर्त रख दी थी कि मूल गाने में छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। किशोर कुमार ने भरोसा दिया था और मूल गाने से उन्होंने अच्छा बनाया था।
वीरेंद्र बहादुर सिंह