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माता कैकेयी का विशाल हृदय

हम इंसान बहुत जल्दी ही किसी निर्णय पर पहुँच जाते हैं जो कभी-कभी हमें गलत निष्कर्ष तक ले जाता है। हर व्यक्ति, हर क्षण, हर घटना अपने आप में बहुत कुछ समेटे होता है, हम एक ही सिरा देखकर उसके दूसरे सिरे को नकार देते हैं, और अपनी राय निश्चित कर लेते हैं। इतिहास में भी एक अति विशिष्ट, सचरित्र, वीरांगना, कर्त्तव्यपरायण पत्नी और ममतामयी माँ कैकेयी हमारे इन्हीं सोच के कारण सदा से ही कुछ लोगों की दृष्टि में हेय रही है।

कैकेयी राजाकी शेष दो रानियों की अपेक्षा अधिक समर्थ कुल व राज्य से थी, रूपवती और संगीतज्ञ होने के साथ ही युद्ध-कला में पारंगत थी। उन्हें वेदों-शास्त्रों के साथ-साथ समुद्र शास्त्र और राजनीति का भी ज्ञान था। इन्हीं गुणों के कारण महाराज दशरथ उनके प्रति अधिक आसक्त रहते थे, लेकिन तब भी कैकेयी द्वारा अन्य रानियों के प्रति कभी किसी दुर्व्यवहार का उद्धरण नहीं मिलता। अर्थात् उसका अंतस सरल और निश्छल था, तभी वो राम के प्रति भरत से भी अधिक अनुराग रखती थी।

वन भेजना अपने पुत्र राम के प्रति अनुराग का ही एक रूप था। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि माता कैकेयी ने श्रीराम को वनवास अपने पुत्र भरत के लिए दिया था। जिसे दुनिया राम का वनवास मान बैठी वो राम का ही साथ देना था। श्रीराम ने धरती पर अपने अवतार का प्रयोजन माता कैकेयी से बताया था। ममता का वास्ता देते हुए कहा था-माता! अगर आप सच में मुझे भरत से अधिक स्नेह करती हैं तो मेरा साथ दीजिये, कोई राह निकालिए, पिताजी मुझे राजा घोषित कर देंगें तो मैं वन में नहीं जा सकूँगा और माता कौशल्या तो कदापि मुझे जाने नहीं देंगी। मुझे वैसे भी राजसी वेष में नहीं जाना है बल्कि एक साधारण मनुष्य के रूप में जाना है। यह सुन कर माता कैकेयी चिंतित हो गयी। परन्तु प्रभु राम के समझाने पर माता कैकेयी मान गयी। जबकि वो ये भी जानती थी कि राम का इस प्रकार साथ देना उसके अपयश का कारण बनेगा फिर भी उन्होंने ये त्याग किया।

माता कैकेयी

रही बात महाराज दशरथ के मृत्यु की, तो ये भी राम और कैकेयी को ज्ञात था कि ये होकर ही रहेगा, क्यूँकि उनको श्रवण कुमार के पिता शांतनु का श्राप मिला था, इससे उन्हें कोई बचा ही नहीं सकता था। लेकिन उससे पहले की भी बातों पर अगर गौर करें-कैकेयी नंदीग्राम अर्थात् कैकय देश के राजा अश्वपति की बेटी थी, और वही शांतनु उनके राजपुरोहित थे और उन्होंने ही कैकेयी को सभी वेद-पुराण और शास्त्रों की शिक्षा दी थी। एक दिन बातों ही बातों में अयोध्या नरेश की चर्चा चल पड़ी तब शांतनु ने बताया था कि ज्योतिष गणना के अनुसार राजा दशरथ का कोई भी पुत्र गद्दी पर नहीं बैठ पायेगा और अगर उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी कोई भी संतान सिंहासन पर बैठा तो रघुकुल का नाश हो जायेगा। 14 वर्ष उनके राज्य का बहुत कठिन समय होगा ये बात कैकेयी नहीं भूली थी न ही उनके पिता। इसलिए जब कैकेयी का विवाह दशरथ जी से हुआ तब भविष्य की इन्हीं योजनाओं को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से हमेशा भरत को अलग से भी ननिहाल में शिक्षा दी गयी। क्योंकि कैकेयी तो जानती थी और तय करके रखा था कि भरत को शायद राजकार्य संभालना ही होगा। और यही बात जब राम ने अपनी योजना बताई तब कैकेयी ने राम को वनवास दिया ताकि वो गद्दी पर न बैठे। साथ ही उसे पता था कि उनका पुत्र भरत भी भाई के गद्दी पे कदापि नहीं बैठेगा, परन्तु राजपाट को संभाल सकेगा और इस तरह उसने रघुकुल की रक्षा की। ध्यान देने योग्य बात है कि जब राम को वापस लेने सबलोग वन में पहुँचे और तरह-तरह से कैकेयी के बारे में भरत और लक्ष्मण ने भी निंदनिये बातें कही तब रामजी ने कहा –

दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई।
जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।

जिसका अर्थ है कि माता को तो वही मूर्ख लोग दोष देते हैं जिन्होंने गुरुओं, साधुओं कि सभा का सेवन नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि राम जानते थे इस सारी प्रक्रिया को और उनको पता था माता कैकेयी ने कितना विशाल हृदय करके सारा अपयश सह लिया है। राम को वन में 14 साल के लिए भेजने की योजना महर्षि वशिष्ठ ने ही हरी झंडी दी थी। राजगुरु की स्वीकृति के बिना किसी भी कार्य को अंजाम नहीं दिया जा सकता था, यह भी समझने की बात है।\

– श्रीमती रेखा सेठी

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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