MOVIE NASBANDI
MOVIE NASBANDI
in

Nasbandi : क्या मिल गया सरकार को नसबंदी करा के, हमारी बंसी बजा के…

Nasbandi: हिंदी फिल्मों के हास्य कलाकारों का दुर्भाग्य यह है कि इन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता। रोमांटिक, ट्रेजडी, ऐक्शन विलन या चरित्र अभिनेताओं की तरह ये भी एक कामेडी कलाकार ही होते हैं, पर सिनेमा की दुनिया या सिनेमा के बाहर की दुनिया इन्हें चक्रम ही समझती है। इसका एक कारण शायद यह है कि बाकी के पात्रों के आभिनय में कुछ हद तक बुद्धि का तड़का देखने को मिलता है, परंतु कामेडियन के लिए लोग यह मान लेते हैं कि जो भी होता है, वही मूर्खता करता है।
वर्तमान पीढ़ी के श्रेष्ठ कामेडियन जौनी लीवर ने अभी कुछ दिनों पहले ट्विंकल खन्ना के साथ एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके साथ ऐसी ट्रेजडी होती है कि वह किसी की मौत पर दिलासा देने जाते हैं तो लोग वहां भी उनसे कामेडी करने का ऑफर करते हैं। ‘मुझे गंभीर भूमिका करनी हो तो भी कोई निर्माता-निर्देशक तैयार नहीं होता।’
कुछ हद तक आज के या बीते समय के तमाम कामेडियनों की यही स्थिति थी। इसमें एक अपवाद आई एस चौहर थे। उनका पूरा नाम इंदर सेन जौहर था। सिनेमा के आज के दर्शकों को शायद यह नाम याद न हो, पर मम्मी-पापा की पीढ़ी के लोगों को एक ‘गंभीर व्यंग्यकार’ के रूप में जौहर याद होंगे। यस जौहर उस जमाने के मशहूर कामेडियन थे। पर उनकी कामेडी में फूहड़ हास्य के बजाय गंभीर प्रकार का व्यंग्य था। व्यंग्य करने के लिए बुद्धि की जरूरत होती है, जो जौहर में बहुत ज्यादा थी।
इसीलिए 70 के दशक में फिल्मी पत्रिका फिल्मफेयर के पिछले पन्ने पर आई एस जौहर के सवाल-जवाब का काॅलम आता था। उसमें वह पाठकों के ऊटपटांग सवालों के व्यंग्यात्मक जवाब देते थे। (किसी ने पूछा था- कहते हैं कि बातें अंग्रेजी में और प्यार फ्रेंच में करे तो हिंदुस्तानी में क्या?)
जौहर : बच्चे हिंदुस्तानी में करें।
50 के दशक से शुरू कर के 80 तक जौहर ने तमाम हिंदी फिल्मों में काम किया था। 1992 में तो उन्होंने डेविड लीन निर्देशित हालीवुड की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘लाॅरेंस आफ अरेबिया’ में काम किया था। (इस फिल्म में इजिप्तियन हीरो ओमर शरीफ की भूमिका पहले दिलीप कुमार को ऑफर हुई थी, पर उन्होंने ठूकरा दिया था, जिसका बाद में उन्हें अफसोस हुआ था।

NASBANDI MOVIE :

जौहर एक्टर के अलावा लेखक, निर्माता और निर्देशक भी थे। वह अपने समय की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति का मामले में काफी सजग थे। उनकी इंदिरा गांधी के समय की बनाई ‘नसबंदी’ नाम की फिल्म विवादास्पद रही थी और सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह फिल्म इस हकीकत का सबूत थी कि जौहर में अपने आसपास की दुनिया को लेकर एक निश्चित विचार था। उस समय नसबंदी का पूरा विवाद इतना आम हास्यास्पद और आम गंभीर था कि जौहर ने उस पर फिल्म बना कर खुद को मुसीबत में डाल लिया था।

19 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इशारे पर भारत में इमरजेंसी लगाई गई थी। इसमें तमाम लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे और सरकार से जुड़े तमाम समाचार और सूचनाएं सेंसर कर दी गई थीं। इमरजेंसी में सरकार ने जो अमुक कदम उठाए थे, उसमें एक था नसबंदी का। इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने देश में बढ़ रही जनसंख्या को रोकने के लिए ‘उत्साहित’ योजना में (उस समय जनसंख्या बढ़ोत्तरी एक समस्या मानी जाती थी, आज ताकत मानी जाती है) गरीब परिवारों की महिलाओं-पुरुषों की नसबंदी का कार्यक्रम लाया गया था, जिसमें एक साल में 62 लाख लोगों की नसबंदी को गई थी। इसमें पुलिस इतनी ‘उत्साहित’ थी कि गरीब लोगों को जबरदस्ती सेंटर पर ले जाती थी। इमरजेंसी की ही तरह यह नसबंदी भी देश के लिए काला प्रकरण है। दूसरे अन्य विचारशील लोगों की तरह आई एस जंहर को भी इसमें देश की ट्रेजडी दिखाई दी थी और इससे व्यथित हो कर एक साल बाद 1976 में ‘नसबंदी’ नाम की फिल्म बनाई थी।फिल्म में जौहर और अन्य कामेडियन राजेंद्र नाथ के नेतृत्व में एक समूह नसबंदी करने के लिए लोगों को खोजती है और इसमें जो गडबड़ घोटाला होता है, उसकी कहानी थी।
MOVIE NASBANDI
फिल्म का विषय तो (सरकार की नजर में) विवादास्पद था, जौहर ने इसमें एक अन्य प्रयोग किया था, उन्होंने उस समय के लोकप्रिय हीरो के डुप्लीकेट कलाकार लिए थे। शायद इसका कारण यह रहा होगा कि बड़े कलाकार सरकार को नाराज नहीं करना चाहते रहे होंगे। जौहर ने डुप्लीकेट को लेकर उनकी भी फिरकी उतारी थी। जैसे कि अमिताभ बच्चन की जगह अनिताव बच्चन, मनोज कुमार की जगह कनौज कुमार, शशी कपूर की जगह सही कपूर, राजेश खन्ना की जगह राकेश खन्ना और शत्रुहन सिन्हा की जगह शत्रु बिन सिन्हा।
सेंसर बोर्ड ने तत्काल फिल्म को बैन कर दिया था। अखबारों की तरह फिल्मों में भी सरकार की टीका-टिप्पणी लगती हो तो सेंसर बोर्ड उसे रोक देता था। गुलजार की ‘आंधी’ और अमित नाहटा की ‘किस्सा कुर्सी का’ नाम की फिल्में भी सेंसर में अटकी पड़ी थीं। जौहर ने फिल्म रिलीज करने के लिए बहुत मेहनत की थी, पर कोई वितरक इसमें हाथ लगाने को तैयार नहीं था। अंतत: 1978 में फिल्म थिएटरों तक पहुंच सकी थी। पर तब तक नसबंदी का यह विषय ठंडा पड़ चुका था और लोगों में उनकी यह फिल्म देखने का उत्साह नहीं रह गया था। जबकि समय के साथ जौहर के साहसिक प्रयास का महत्व समझ में आया और फिर फिल्म एक प्रतीक रूप बनी।
इसका गाने तो शायद आज भी प्रतिबंधित है। उस समय के प्रसिद्ध हास्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी ने राजनीतिक रूप से ज्वलंत गाने लिखे थे। जैसे कि एक गाने की पंक्ति थी, ‘क्या मिल गया सरकार को इमरजेंसी लगा के, नसबंदी करा के हमारी बंसी बजा के…’ इस गाने के समय परदे पर ऐसा दृश्य आता था, जिसमें एक व्यक्ति नसबंदी केंद्र से लड़खड़ाते हुए बाहर आता है और उसके हाथ में ‘उपहार’ में मिला ट्रांजिस्टर, डालडा घी और रुपिया है।
दूसरे एक गाने में मुरादाबादी ने गंभीर कटाक्ष किया था : ‘देखी कहीं कलमबंदी, देखी कहीं जुबानबंदी, डर की हुकूमत हर दिल पर थी, सारा हिंदुस्तान बंदी…’।
आई एस जौहर राजनीतिक स्थिति के प्रति संवेदनशील थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी का राज्याभिषेक हुआ तो जौहर ने ‘द कोरोनेशन’ नाम का नाटक लिख कर उन पर व्यंग्य किया था। 1977 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को पदच्युत कर के जनरल जियाउल हक ने सत्ता हाथ में ली तो जौहर ने ‘भूट्टो’ नाम के नाटक में पाकिस्तान के फारस का मजाक उड़ाया था।
यह नाटक भी सेंसरशिप में अटका (वह भी 1982 में) तब एक आरोप का जवाब देते हुए जौहर ने अपनी अनअनुकरणीय शैली में कहा था  ‘रूढ़िवादी जिया को मौलवी कहा जाए तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। रही बात ‘पागल’ की तो इसमें मैं समझौता करने को तैयार हूं।’ (जौहर ने जिया को ‘पागल मौलवी’ कहा था। )

What do you think?

Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Alam Ara आलम आरा

Alam Ara आलम आरा : पहली बोलती फिल्म की खो गई आवाज

IMG 20230703 WA0019

जीवन का मर्म