घर घर में रोते मुसीबत के मारे।
शहर जल रहा है शहर के किनारे।
दो गज जमीं भी नहीं मिल रही है,
मौत ऐसी न देना मौला हमारे।
खुदा मा़फ करना गुनाहगार हैं हम,
हर इक जिंदगी है तुम्हारे सहारे।
हर मर्ज की अब दवा तू है मौला,
दवा इस वबा की हम करके हारे।
तेरी ज़मीं पर बहुत जुल्म करके,
ढूंढने हम चले थे, चांद और तारे।
अब तो खता माफ कर मेरे मौला,
जमीं पर किए जुल्म फिर से सुधारें।
रोटी सियासत पे फ़िर सेक लेना,
इंसानियत आज तुमको पुकारे।
हमीं लड़-झगड़ कर हमीं मर मिटे हैं,
मुहब्बत न सीखे किस्तम के मारे।
बेज़ार, छोड़ो क़फन बेचना तुम,
मतलब के अपने बहुत दिन गुजारे।
-जे. ए. शेख