चिट्ठियों का भी क्या दौर था
नाही कोई शोर था
प्रेम के शब्दों से गढ़ी जाती थी
बार बार पढ़ी जाती थी …
जब जब डाकिया आता था
स्नेह का पैगाम वो लाता था
खुशियों से मन भर आता था
अपनो के होने का एहसास दिलाता था …
हर एक सदस्य पढ़ता था
शब्दों में पिरोए प्रेम को समझता था
चिट्ठी की बात निराली थी
सबके मनो को भाने वाली थी …
सब सुख दुःख बाटे जाते थे
कुशल छेम भी पूछें जाते थे
कभी हंसाती, कभी रुलाती
अपनो की याद दिलाती थी …
जब जब अपनो की याद आती थी
वो चिट्ठियां फिर से पढ़ी जाती थी
कितना प्यार , अपनापन भरा होता था
उन यादों को संजो कर जो रखा होता था …
सच में ,
कितना आनन्द से परिपूर्ण ,
वो वक्त ही कुछ और था
जब चिट्ठियों का भी
अपना एक अलग दौर था …
राजश्री शर्मा
जबलपुर (म. प्र.)