चहचहाहट को तरसता हुआ घर लगता है
बिन परिंदों के उदास आज शजर लगता है
राहे पुरख़ार से मुझको नहीं डर लगता है
ख़ूबसूरत ये मुहब्बत का सफ़र लगता है
बदले – बदले मेरे यारों के हैं दिखते तेवर
लहजे में उनके सियासत का असर लगता है
गर अदीबों से भरी बज़्मे सुखन मिलती रहे
तो निखरता हुआ अपना भी हुनर लगता है
छल कपट से भरी दुनिया में कहाँ जाऊँ रब
तेरा दर ही मुझे राहत का बसर लगता है
दर्द बनता है कभी तो कभी यह मरहम भी
इश्क़ कल अब्र था तो आज शरर लगता है
डॉ. कविता विकास
धनबाद ,झारखण्ड
टाइटैनिक: प्रेम और जहाज की ट्रेजडी