कह रही है अजन्मी
कह रही है अजन्मी
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कह रही है अजन्मी

मां मैं भी इस दुनिया में

आना चाहती हूँ

नन्हे नन्हे पैरो से

मैं भी गिरकर ठोकर

खाना चाहती हूँ

गिरते गिरते उठकर

सम्भलना चाहती हूँ

तेरी उंगली पकड़कर

चलना चाहती हूं

तोतली जबान में कभी

तो कभी लाड में माँ

मैं भी तुझे माँ

कहना चाहती हूँ।

क्यों नहीं कर सकती

मैं यह सब

मेरा दोष क्या है

जानना चाहती हूँ।

माँ क्योंकि मैं बेटी हूँ

इसलिए तू मुहँ मोड़

रही है ममता से

मैं बेटी हूँ इसलिए

नहीं चाहती तू कि

मैं जन्म लूँ

माँ तू भी तो बेटी थी

फिर क्यों तू ही

मेरी दुश्मन बन गयी

कैसे मजबूर हो गयी तू

इतनी कि मुझसे

माँ कहने का हक़ छीनना

चाहती है

माँ क्यों मजबूर है तू

इस दुनिया के आगे

इसका जवाब मैं भी

जानना चाहती हूँ।

माँ दे दे हक़ मुझे भी

दुनिया में आने का

बेटी होती है क्या तुझे

एहसास कराने का

बोझ नहीं हूँ माँ मैं

मैं भी हूँ तेरा ही अंश

क्या हुआ गर मैं

बेटा नहीं बेटी हूँ

आखिर हूँ तो तेरी

ही पहचान मैं

तभी तो तेरी कोख में

सपने संजोती हूँ

माँ बेटी होना अभिशाप

नहीं है, बेटों से ही दुनिया

खास बनती नहीं है

मैं भी तेरी दुनिया में

रंग भरुंगी, नहीं बेरंग

होने दूँगी जीवन तेरा

आज मैं तुझसे यही

जताना चाहती हूँ

सच सच बतलाना माँ

अपनी दुनिया से मुझे

दूर करके खुश हो पायेगी तू

क्या मुझसे बिछड़कर

अकेले तन्हाई में अपनी

पलकें नहीं भिगोएगी तू।

क्या इसके लिए खुद को

कभी माफ़ कर पायेगी तू

क्या तुझे कभी मेरी याद

नहीं सताएगी

क्या ये कदम उठाकर तू

मुझे भूल पायेगी

नहीं माँ चाहे कितनी भी

कोशिश कर ले तू

चाहकर भी मुझे तू अपनी

दुनिया से,  अपने जेहन से

निकाल नहीं पाएगी

कभी देखकर किसी और

की नन्ही मुस्कान, तुझे

मेरी याद जरूर आएगी

कभी बनते देख किसी

को दुल्हन तू

मेरे लिए भी नए घर के

सपने सजाएगी।

फिर क्यों माँ तू मुझसे

ये सब छीनना चाहती है

मुझे अपनी दुनिया का हिस्सा

बनाने से क्यों तू कतराती है

क्यों माँ क्यों तू  मुझसे अपनी

ममता छिपाती है

आखिर मेरा दोष क्या है

अजन्मी बेटी तुझसे यही

पूछना चाहती है।

लक्ष्मी अग्रवाल

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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