ज़िंदगी का मुसाफ़िर
ज़िंदगी के सफर पे था मुसाफ़िर,
अन्त में अकेला रह गया।
रे मुसाफ़िर तू तो चल रहा था,
सफ़र ए ज़िंदगी में ख़ुद की तलाश में।
इस संसार में भटकता रहा,
अन्त में अकेला रह गया।
नए मुसाफ़िर मिले,
रिस्ते बने, यार मिले,
दिल जुड़े, दिल टूटे।
मिलन जुदाई का समा चलता रहा,
अन्त में अकेला रह गया मुसाफ़िर।
हर नई शुरुआत में,
छोड़ अपना घर – यार,
निकल पड़ा उस के अंजाम पर।
किस्तों में था मुसाफ़िर
अन्त में अकेला रह गया।
चलते चलते हुई उन से मुलाकात,
उस का साथ क्या छूटा,
तेरा तो आशियाना टूटा।
पल पल टूटा था तू तो,
अन्त में अकेला रह गया मुसाफ़िर।
आई मौत तो,
अपने ही छोड़ आए उसे,
ये भी न देखा कहा गया मुसाफ़िर।
था अकेला सफ़र पे,
अन्त में भी अकेला रह गया मुसाफ़िर।
ज़िन्दगी की सफ़र पे था मुसाफ़िर,
अन्त में अकेला ही रह गया।
✍🏻पार्थसिंह राजपूत