स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद
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भारतीय अध्यात्म और राष्ट्रवाद के अन्तरराष्ट्रीय प्रवक्ता स्वामी विवेकानंद

‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’
उपरोक्त कालजयी आह्वान उस देशभक्त संन्यासी और पश्चिम में भारत के उस सांस्कृतिक राजदूत का है जिनके संबंध में नोबेल पुरस्कार प्राप्त विश्व विख्यात कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- ‘आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़िए। उनमें सब कुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं।’
वही विवेकानंद जिन्होंनें वेदांत का डंका १८९३ ईस्वी में शिकागो धर्म संसद में पीटकर भारत का नाम सम्पूर्ण विश्व में फैलाया। उन्होंनें संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा इंग्लैंड और यूरोप में हिन्दू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया और व्याख्यानों का आयोजन किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो खुद एक विख्यात लेखक और इतिहासकार थे, उन्होंनें अपनी प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में विवेकानंद के बारे में लिखा है- ‘उन्होंनें तब दुखी और उम्मीद छोड़ चुके हिन्दुओं के लिए दिमाग के लिए किसी टॉनिक का काम किया। उन्होंनें यकीन दिलाया कि उनके अतीत की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि वे उस पर गर्व कर सकें।’

उन्होंनें अपनी एक अन्य प्रसिद्ध पुस्तक ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखा- ‘रामकृष्ण के एक प्रसिद्ध शिष्य स्वामी विवेकानंद थे जिन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से राष्ट्रवाद का प्रचार किया। यह किसी भी तरह से मुस्लिम विरोधी या किसी और के विरोधी नहीं थे और न ही यह संकीर्ण राष्ट्रवाद था।’ नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उनके बारे में लिखा- ‘स्वामी जी ने पूर्व तथा पश्चिम, धर्म और विज्ञान, विगत और वर्तमान को सुसंगत किया। इसलिए वे महान हैं। उनकी शिक्षाओं से हमारे देशवासियों ने अभूतपूर्व आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता तथा आत्मसम्मान की भावना प्राप्त की है।’ लोकमान्य तिलक भी उनसे बहुत प्रभावित थे। उन्होनें लिखा है- ‘इस युवा संन्यासी ने गीता के श्लोकों के प्रति मुझे एक नयी दृष्टि दी ‘महात्मा गांधी भी स्वामी विवेकानंद से प्रभावित थे। इसकी पुष्टि उनकी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ से होती है। यद्यपि स्वामी जी की अस्वस्थता के चलते उनकी मुलाकात उनसे संभव नहीं हो सकी लेकिन उनकी शिष्या सिस्टर निवेदिता से विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई थी। उनके अन्य कथन भी पढ़िए- ‘स्वामी विवेकानंद ने ही हमें याद दिलाया कि उच्च वर्ग ने अपने ही लोगों का शोषण किया है और इस तरह अपना ही दमन किया है। आप खुद नीचे गिरे बिना अपने ही स्वजातों को नीचे नहीं दिखा सकते। (क्लक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी, खंड ३०, पृष्ठ ४०१) स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवाद में नफरत का कोई स्थान नहीं है। उनका राष्ट्रवाद भारतीयों को बेहतर मनुष्य बनाता है। उनके राष्ट्रवाद में सेवा, करूणा, त्याग, आध्यात्मिक प्रवृत्ति, शांति, सौहार्द और समावेशी सोच का स्थान है। उन्होंने कहा था- `भारत मेरे बचपन का हिंडोला, यौवन का आनंदलोक और बुढ़ापे का बैकुंठ है। भारत ही मेरा जीवन है और मेरे प्राण। हर भारतवासी भाई-भाई हैं। चाहे वह ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, चाहे वह धनी हो या निर्धन ,चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित।’

स्वामी विवेकानंद
उनके लिए मनुष्यता ही सबसे ऊपर था। मनुष्य का निर्माण उनके मिशन का मूल ध्येय था। वे उत्तम चरित्र द्वारा स्वस्थ नागरिक बनाने के हिमायती थे। उनका मानना था कि शिक्षा के प्रचार- प्रसार से ही देशवासी अपने अधिकार- कर्तव्य के प्रति जागृत हो सकता है और स्वयं के साथ-साथ राष्ट्र की मुक्ति के लिए संघर्ष कर सकता है।
वे मानवता के सच्चे पुजारी और क्रांतिकारी संन्यासी थे। धर्म के प्रति उनका नजरिया लीक से हटकर सर्वथा नवीन था। उनका कहना था- ‘हम मानवता को ऐसी जगह ले जाना चाहते हैं जहाँ न वेद हो, न कुरान हो और न बाईबिल। परन्तु यह वेद, कुरान और बाईबिल के सामंजस्य से ही किया जा सकता है। मानवता को हमें सिखाना होगा कि विभिन्न धर्म एक ही धर्म की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।’

जनकवि नागार्जुन

उनका मानना था कि एक-दूसरे से सीखकर सभी धर्म एक साथ आगे बढ़ सकते हैं। वे कहते थे कि अपने देश का भविष्य हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के सौहार्दपूर्ण रिश्तों में ही निहित है। हमारी मातृभूमि के लिए दो महान धर्मों का संगम एकमात्र आशा है- वेदांत बुद्धि और इस्लामिक शरीर। उन्होंने धर्म को लोगों की सेवा और सामाजिक परिवर्तन से जोड़ा। उनका मानना था कि धर्म किसी कोने या गुफा में बैठकर सिर्फ चिंतन-मनन करने का ही माध्यम नहीं है बल्कि इसका लाभ देश और समाज को मिलना चाहिए। धर्म के लिए उनका संदेश हमारे आज के धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत समाज के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने साम्प्रदायिक भेदभाव मिटाने का संदेश दिया। उन्होंने धर्म और विज्ञान को एक दूसरे का पूरक माना। उन्होंने धर्म को चेतना का विज्ञान माना। उन्होेंने हमें सिखाया कि किस प्रकार हम अपनी धार्मिक जड़ों से युक्त रहकर पश्चिम के विज्ञान और प्रौद्योगिकी में दक्षता हासिल कर अपना और अपने राष्ट्र का विकास कर सकते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस की सहिष्णुता के सिद्धांत का प्रयोग कर उन्होंने विभिन्नता मे एकता के सिद्धांत के आधार पर हिन्दूवाद का सम्रग एकीकरण का सूत्र दिया। उनके मतानुसार पूरब और पश्चिमी की सभ्यताएं एक-दूसरे का पूरक है। पूरब और पश्चिम के मिलन से ही धरा पर मानवता की अविरल धारा निःसृत होगी।

उन्होेंने अद्भुत क्रांतिधर्मिता का मिसाल कायम करते हुए कहा कि जब तक हमारे देश में करोड़ों लोग भूखे और अज्ञानी रहेगें, मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानूँगा जो उनकी कीमत पर शिक्षित हुआ है और उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता है। नए भारत के निर्माण में उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि दलितों और शोषितों के प्रति देशवासियों के हृदय में अपने कर्त्तव्यों का बोध जागृत करने का प्रयास किया। राष्ट्रीय सम्पत्ति के उत्पादन में श्रमिक वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका को बहुत पहले ही रेखांकित कर दिया।
अपने देश की जमीनी हालात को समझने और महसूस करने के लिए उन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा की। इस भ्रमण के क्रम में उन्होंने आम आदमी की भयानक गरीबी और पिछड़ेपन को नजदीक से देखा और दयनीय दशा को देखकर उनकी रूह काँप गयी। उन्होंने इस दयनीय दशा को दुरुस्त करने के लिए कृषि का आधुनिक तरीकों से विकास कर एवं ग्राम्य-उद्योग को सुदृढ कर आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने का सुझाव दिया। वे जाति प्रथा के घोर विरोधी थे और इनकी आड़ में चलने वाले शोषण-चक्र को धर्म को बदनाम करने का षडयंत्र समझते थे। इस जाति भेद को दूर करने के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि निम्न वर्ण के लोगों को इतना उठाओ कि वे उच्च वर्णों के बराबर खड़े हो जाएं। उन्हें दया नहीं, सामर्थ्य प्रदान करो।
वे समाज में समता के पक्षधर थे। जन्म, लिंग और जाति के आधार पर समता के विरुद्ध किसी भी तरह के उठाए गए कदम को एक भयानक भूल मानते थे। उनका आध्यात्मिक विचार अनमोल है। वे कहते हैं कि कामना सागर की भाँति अतृप्त है, ज्यों-ज्यों हम उनकी आवश्यकताएं पूरी करते हैं ,त्यों- त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है। जीवन का रहस्य भोग में नहीं है, अपितु अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्ति में है। देश के युवा वर्ग को नैतिक पवित्रता और त्यागमय जीवन अपनाने का संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि इन दोनों सद्गुणों से लैस होकर ही वे मानवता के उत्थान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। उन्होंनें देश के युवकों को सफलता प्राप्ति के लिए तीन सूत्र दिए-`शुचिता,धैर्य और अध्यवसाय।’

विद्यार्थियों को संदेश देते हुए उन्होंने कहा था- `श्रीमद्भागवत गीता समझना चाहते हो तो गीता पढ़ने के पहले मैदान में जाकर फुटबॉल खेलो, मांसपेशियां मजबूत करो तो गीता सहज समझ में आने लगेगी।’ स्वदेश वापस आने के पश्चात् उन्होेंने १८९७ में रामकृष्ण मिशन तथा १८९८ में गंगा तट पर बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना कर मानवता की सेवा के लिए अन्यतम कार्य सम्पन्न किए। संस्कृत के एक श्लोक जो स्वामी विवेकानंद के जीवन पर अक्षरशः चरितार्थ होता है- `विज्ञान, विभव और आर्य गुणों से युक्त होकर प्रसिद्धि के साथ क्षणभर जीना भी विद्वानों की सम्मति में जीना है अन्यथा कौवा भी अपना पेट पालता हुआ बहुत दिनों तक जीता है, लेकिन उसका जीना, जीना नहीं कहा जा सकता।’ जीवन वस्तुतः उसी का धन्य है जो मरकर भी अपना नाम अमर कर जाता है। मात्र ३९ वर्ष का जीवन काल (जन्म-१२ जनवरी१८६३, निधन-४ जुलाई १९०२) पाकर अविस्मरणीय कार्य सम्पन्न करने वाले वेदांत के विख्यात और प्रभावशील आध्यात्मिक गुरू और महान विभूति को श्रद्धायुक्त कोटि-कोटि नमन। यशः शरीर में वे सदैव हमारे बीच विद्यमान रहेगें और युगों-युगों तक प्रेरणास्रोत बने रहेगें।

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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