Indian Freedom Fighters : भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देकर अथवा प्राणों को सार्थक रखते हुए इस मां भारती को गौरो के चुंगल से मुक्त कराया। मां भारती के अनगिनत लोगों ने प्रत्यक्ष/ परोक्ष रूप से स्वतंत्र कराने में अमूल्य योगदान दिया लेकिन समय व काल प्रवाह का एक मार्ग जो सदा से चल रहा है। उसी के अनुरूप चलने की बजाय विभिन्न स्वार्थी लोगों ने कई सैकड़ों लोगों के नाम का उल्लेख भी इतिहास में नहीं किया गया/नही हुआ।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महिला एवं पुरुषों का योगदान अपेक्षाकृत बेहतर रहा है तात्कालिक समय व परिस्थिति के अनुसार महिलाओं का घर से बाहर कम ही निकलने दिया जाता था लेकिन सब कुछ छोड़ कर घर से बाहर निकलना शुरू किया। आजादी की लड़ाई में विभिन्न वर्ग के लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया इस गुमनाम की श्रेणी में विनायक दामोदर सावरकर का नाम सर्वप्रथम और लोकप्रिय हैं।
इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करने के कारण कई योग्य स्वतंत्रता सेनानियों को इतिहास में जगह नहीं मिल पाई जिस प्रकार भारतीय इतिहास में राणा प्रताप की जगह अकबर को महान बताते हैं और मारवाड़ का भूला बिसरा नायक राव चंद्रसेन राठौर का भी तात्कालिक इतिहास में बहुत ही कम वर्णन मिलता है।
राव चंद्रसेन को प्रताप का अग्रगामी माना जाता है। राव चंद्रसेन को मारवाड़ का प्रताप भी कहा जाता है स्वाधीनता की लड़ाई में अंग्रेजों से लोहा लेकर देश की माटी को आजाद कराने वाले गुमनाम नायकों को कोटि-कोटि नमन्।
वक्त वक्त की फजीहत को समझो,
वक्त सबका आता है लेकिन भला मानुस।
इस जंजाल में रहता है कि मेरा,
काम से नाम होगा लेकिन।
आज के इस दौर में हो नहीं रहा,
जिसकी हमें चाहते हैं वह हमें स्वयं करना पड़ेगा।।
देश की आजादी के गुमनाम नायक-
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौर में अपनी जान देकर देश की इस पवित्र भूमि को विदेशी आक्रमणकारियों घुसपैठियों और अंग्रेजों से मुक्त करवाकर कई सैकड़ों लोगों ने अपना योगदान दिया वामपंथी विचारधारा और पश्चिमी इतिहासकारों ने भारतीय लोगों का अर्थात स्वतंत्रता सेनानियों का बहुत ही कम अथवा तुलनात्मक रूप से अयोग्य व्यक्तियों के रूप में दर्शाया समय के साथ भारतीय इतिहासकारों ने वास्तविक अध्ययन और शिलालेखों के साथ-साथ तात्कालिक भारतीय इतिहासकारों का अध्ययन किया तो पता चला कि इस श्रेणी में भारत के कई लोगों का वर्णन भी नहीं किया गया है जो वर्णन करने योग्य हैं।
इस गुमनाम नायक की श्रेणी में विनायक दामोदर सावरकर, मातंगिनी हाजरा, बेगम हजरत महल, सेनापति बापट,अरूणा आसफ अली, बटुकेश्वर दत्त, पीटी श्रीरामुलू, भीकाजी कामा, तारा रानी श्रीवास्तव, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, पीर अली खान, कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसे कई सैकड़ो नाम है।

विनायक दामोदर सावरकर ( Vinayak Damodar Savarkar )
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म २८ मई १८८३ को मराठी ब्राह्मण चित्तपावन परिवार में दामोदर और राधा सावरकर की कोख से भांगूर गांव में हुआ। एक भारतीय राजनीतिज्ञ और हिंदू महासभा के अग्रणी व्यक्ति थे सावरकर हिंदुत्व की हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारधारा विकसित की। सावरकर एक नास्तिक और हिंदू दर्शन के व्यावहारिक आभासी भी थे।
विनायक दामोदर सावरकर ने अभिनव भारत सोसायटी नामक एक गुप्त समाज की स्थापना की।
सावरकर ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से की। कानून की शिक्षा के सिलसिले में ब्रिटेन जाने पर स्वयं को इंडिया हाउस, प्रâी इंडिया सोसाइटी संगठनों से जोड़ा। क्रांतिकारी माध्यमों से ओतप्रोत पुस्तकें भी लिखी इसमें उनकी द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस १८५७ प्रमुख है। लेकिन कुछ समय पश्चात इस पुस्तक को बैन कर दिया। १९१० में सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया।
भारत की वापसी यात्रा के समय प्रâांस में शरण लेने का प्रयास किया लेकिन प्रâांसीसी अधिकारी ने मना कर दिया सावरकर को ५० साल के कारावास तथा दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और काले पानी की सजा के स्वरूप में अंडमान और निकोबार दीप समूह की जरूरत जेल में भेज दिया गया।
सावरकर ने अपना अमूल्य जीवन भारत को स्वतंत्र कराने में लगाया सावरकर ने विदेशों में रहकर भी वहां से ऐसी पत्रिकाएं निकाली जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए सायक्से देवी लेकिन तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने उनकी पत्रिकाओं को रद्द कर दिया अथवा बैन कर दिया गया लेकिन सावरकर ने सदा देश के प्रति अच्छा कार्य किया लेकिन आज के दौर में वामपंथी विचारों के लोगो अर्थात इतिहासकारों ने ऐसे लोगों को इतिहास में बहुत ही कम मितान दिया है।
Indian Freedom Fighters क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ( Batukeshwar Dutt )
भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर आँखें शर्म से झुक जाती हैं। इतिहास में कुछ ऐसे क्रांतिकारी हुए हैं, जिन्होनें हमें आजादी दिलाने के लिए अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, लेकिन उन्हें स्वतंत्रता के बाद अपने ही लोगों की वजह से कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। कुछ ऐसा ही हुआ था सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ। बटुकेश्वर दत्त को आजादी के बाद अपनी आजीविका के लिए भीषण संघर्ष करना पड़ा था। उन्होंने परिवार चलाने के लिये कभी गाइड का काम किया तो कभी कभी सिगरेट कंपनी के एजेंट बने। हद तो तब हुई जब पटना कलेक्टर ने उनसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का प्रमाण पत्र मांग लिया।
मात्र १४ वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े .बटुकेश्वर दत्त का जन्म १८ नवम्बर १९१० को बंगाल में हुआ था। बचपन से ही उनमें राष्ट्र और संस्कृति के लिये प्रेम था। यह भाव उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिला था। वे मात्र चौदह वर्ष के थे जब उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने का निर्णय लिया था। उन दिनों वे क्रातिकारियों के संदेश वाहक के रूप में पर्चे बांटने का काम करते थे। जब दिल्ली विधान सभा बम कांड मामले में वह बंदी बनाए गए तब वह सबकी नजर में आए। उनका नाम लाहौर षडयंत्र केस में भी जुड़ा। बाद में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सजा मिली। फांसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे। कहा जाता है कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी, जिसमें लिखा था कि वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं।
उन्हें आजीवन कारावास मिला और कालापानी भेज दिया गया, जहां उन्हें गंभीर शारीरिक यातनायें दी गईं, जिससे वे मरणासन्न हो गये। अंत में अति गंभीर हालत में उन्हे १९३८ में रिहा कर दिया गया । कुछ दिनों में वे स्वस्थ हो गए। १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में वे फिर गिरफ्तार कर लिये गए। उन्हें चार वर्ष की सजा हुई लेकिन १९४५ में ही रिहा हो गए। आजादी के बाद नवम्बर, १९४७ में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे, लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। कभी सिगरेट कंपनी एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर उन्हें पटना की सड़कों की धूल छाननी पड़ी। एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं। हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफी मांगी।
अपने मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में दाह संस्कार थी उनकी अंतिम इच्छा १९६४ में बटुकेश्वर दत्त अचानक बीमार पड़ गए। वह पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए। इस मामले में तत्कालीन सरकार की अनदेखी पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख लिखा। इस पर बिहार सरकार हरकत में आई, लेकिन तब तक उनकी हालत बिगड़ चुकी थी। २२ नवंबर १९६४ को उन्हें दिल्ली लाया गया। यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था, वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे। बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन शेष हैं। अपने अंतिम समय में उन्होंने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री से कहा था, ‘मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।’ उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई। १७ जुलाई को वे कोमा में चले गए और २० जुलाई १९६५ की रात उनका देहांत हो गया।
बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया। आजादी के इस सिपाही ने न सिर्फ एक देशभक्त बल्कि एक सच्चे मित्र का भी फर्ज निभाया है। यह देश जितना उनका कर्जदार है, उतना ही गुनेहगार भी है। वे तो हमारे बीच नहीं रहें, लेकिन उनकी स्मृति को अपने दिलों में जिन्दा रख हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। बटुकेश्वर दत्त का त्याग और बलिदान हमेशा इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
मातंगिनी हाजरा- एक ऐसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन के दौरान भाग लिया था। एक जुलूस के दौरान वे भारतीय झंडे को लेकर आगे बढ़ रही थीं और पुलिसकर्मियों ने उनपर गोली चला दी। उनके शरीर में तीन गोलियां लगीं फिर भी उन्होंने झंडा नहीं छोड़ा और वे `वंदे मातरम्’ ने नारे लगाती रहीं।
Indian Freedom Fighters बेगम हजरत महल (Begum Hazrat Mahal)
अवध के नवाब की पत्नी बेगम हजरत महल १८५७ के विद्रोह की सक्रिय नेता थीं। जब उनके पति को देश से बाहर निकाल दिया तो उन्होंने अवध का शासन संभाल लिया और विद्रोह के दौरान उन्होंने लखनऊ को अंग्रेजी नियंत्रण से छीन भी लिया था। लेकिन विद्रोह के कुचले जाने के बाद बेगम हजरत महल को भारत छोड़कर नेपाल में रहना पड़ा, जहां उनका देहांत हुआ था।
Indian Freedom Fighters सेनापति बापट ( Pandurang Mahadev Bapat )
सत्याग्रह के एक नेता होने के कारण उन्हें सेनापति कहा जाता था। स्वतंत्रता के बाद पहली बार उन्हें पुणे में भारतीय ध्वज को फहराने का सम्मान मिला था। तोड़फोड़ और सरकार के खिलाफ भाषण करने के कारण उन्होंने खुद की गिरफ्तारी दी थी। वे एक सत्याग्रही थे जोकि हिंसा का मार्ग नहीं चुन सकता था।

Indian Freedom Fighters अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali)
बहुत ही कम लोगों ने उनके बारे में यह सुना होगा कि जब वे ३३ वर्ष की थीं तब उन्होंने सन् १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज फहराया था।
Indian Freedom Fighters पोट्टि श्रीरामुलु (Potti Sriramulu)
वे महात्मा गांधी के कट्टर समर्थक और भक्त थे। जब गांधीजी के देश और मानवीय उद्देश्यों के प्रति उनकी निष्ठा देखी तो कहा था कि ‘ अगर मेरे पास श्रीरामुलू जैसे ११ और समर्थक आ जाएं तो मैं एक वर्ष में स्वतंत्रता हासिल कर लूंगा।’
भीकाजी कामा (Bhikaiji Cama)
देश के कई शहरों में उनके नाम पर बहुत सारी सड़कें और भवन हैं लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे कौन थीं और उन्होंने क्या काम किया? कामा ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान किया वरन वे भारत जैसे देश में लैंगिक समानता की पक्षधर एक नेता थीं। उन्होंने अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग लड़कियों के लिए अनाथालय बनाने पर खर्च किया था। वर्ष १९०७ में उन्होंने इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्प्रâेंस, स्टुटगार्ट (जर्मनी) में भारत का झंडा फहराया था।
तारा रानी श्रीवास्तव (Tara Rani Srivastava)
बिहार के सीवान नगर के पुलिस थाने पर उन्होंने अपने पति के साथ एक जुलूस का नेतृत्व किया था। उन्हें गोली मार दी गई थी लेकिन वे अपने घावों पर पट्टी बांधकर आगे चलती रहीं। जब वे लौंटी तो उनकी मौत हो गई थी। लेकिन मरने से पहले वे देश के झंडे को लगातार पकड़े रहीं।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (Kanaiyalal Maneklal Munshi )
उन्हें कुलपति के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की थी। वे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और विशेष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बहुत सक्रिय रहे थे। स्वतंत्र भारत के प्रति उनके त्याग के कारण वे अनेक बार जेल गए।
पीर अली खान (Peer Ali Khan)
वे भारत के शुरुआती विद्रोहियों में से एक थे और उन्होंने १८५७ के स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया था।
स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण उन्हें १४ अन्य लोगों के साथ फांसी की सजा दी गई थी।
कमला देवी चट्टोपाध्याय (Kamaladevi Chattopadhyay)
कमलादेवी देश की ऐसी पहली महिला थीं जिन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा था। साथ ही, वे पहली ऐसी महिला थीं जिन्हें अंग्रेज शासन ने गिरफ्तार किया था। उन्होंने एक सामाजिक सुधारक के तौर पर बड़ी भूमिका निभाई और उन्होंने भारतीय महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए हस्तशिल्प, थिएटर और हैंडलू्म्स (हथकरघे) को बहुत बढ़ावा दिया।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम नायकों की श्रेणी में और भी कई यों का नाम है लेकिन समय काल व परिस्थिति तथा शब्द सीमा को ध्यान में रखते हुए विशेष लोगों का वर्णन किया है।
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के इस आजादी के अमृत महोत्सव की कल्पना को साकार करते हुए यह गुमनाम नायक की श्रेणी भारत के करोड़ों लोगों तक पहुंचे और गुमनाम नायकों का इतिहास में अध्ययन के साथ-साथ हर लोगों के जीभ पर हो।
अशोक जाणी “बिश्नोई”
बाडमेर, राजस्थान