Nirala Sahityanama
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महाप्राण निराला !

Mahapran Nirala: आकर्षक और ऊर्जापूर्ण व्यक्तित्व के कारण महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को ‘महाप्राण’ कहा गया। उनको ‘महाप्राण’ इसलिए भी कहा गया क्योंकि वे अपने समय के कई अल्पप्राण प्रतिमानों को चुनौती देकर अपना महाप्राणत्व सिद्ध कर रहे थे। करूणा और क्रोध, आत्मसम्मान और विनम्रता, कठोरता और अतिशय कोमलता, अक्खड़पन और सहजता आदि विरोधी प्रवृत्तियों के संयोग से उनका अत्यंत जीवंत और आकर्षक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।

स्वस्थ , सुन्दर, रोबीला और विशालकाय शरीर , उन्नत ललाट,गर्वीला चेहरा और बुलंद आवाज-उनका स्मृति- चिन्ह निर्मित होता है। निराला जी का माता- पिता द्वारा दिया गया नाम सूर्य कुमार था , जिसे काव्य- क्षेत्र में पदार्पण के बाद इन्होंने सूर्यकांत के रूप में बदल दिया।इनका जन्म बंगाल के महिषादल के अन्तर्गत मेदिनीपुर जनपद में 1896 ईस्वी में हुआ था।निराला जी ने बंगाल से उत्तर प्रदेश अपने गाँव लौटकर पत्नी मनोहरा देवी की प्रेरणा से हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया। 1818 ईस्वी में इनकी पत्नी का देहांत हो गया। कुछ वर्ष बाद इनके एक मात्र पुत्र का भी निधन हो गया। शेष बची पुत्री सरोज का पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। पुत्री सरोज भी मात्र 19 वर्ष की अवस्था में प्रसूति पीड़ा से इस संसार से विदा हो गयी। 22 वर्ष की अल्प आयु में विधुर होने के पश्चात् अपनी ससुराल के सगे-संबंधियों के अत्यधिक आग्रह- अनुरोध के बावजूद भी निराला ने जिंदगी भर पुनर्विवाह नहीं किया। 1935 में अपनी पुत्री के निधन के बाद वे कहीं स्थिर होकर नहीं रह सके।1950 ईस्वी से वे दारागंज, प्रयाग में स्थायी रूप से रहने लगे। अनेक अवरोधों और दैवी विपत्तियों से खिन्नता के बावजूद वे जीवन पर्यन्त साहित्य- रचना से कभी उदासीन नहीं हुए। अपने परिजनों की मौतों से आहत होने के कारण वे नितांत अकेले हो गए थे। वे मौत का ताण्डव बहुत देखे। वे दुखी थे।

दुखता रहता है अब जीवन,
पतझड़ का जैसा वन- उपवन।
झर- झर कर जितने पत्र नवल
कर गए रिक्त तनु का तरूदल,
हैं चिन्ह शेष केवल सम्बल ,
जिनसे लहराया था कानन।

इसी प्रकार ‘पतनोन्मुख ‘ शीर्षक कविता में मौत की सूरत का वर्णन करते हुए लिखते है-

हमारा डूब रहा दिनमान!
मास- मास दिन- दिन प्रतिपल
उगल रहे हो गरल – अनल ,
जलता यह जीवन असफल,
हिम- हत पातों – सा असमय ही
झुलसा हुआ शुष्क निश्चल!
विकल डालियों से
झरने ही पर हैं , पल्लव- प्राण-
हमारा डूब रहा दिनमान!”
पर वे हताशा- निराशा को दूर

फेंककर ‘ ध्वनि ‘ शीर्षक कविता में घोषणा करते हैं और मौत को ललकारते हैं-

“पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं ,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इनमें कहाँ मृत्यु
है जीवन ही जीवन।
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन,
स्वर्ण- किरण कल्लोलों पर बहता रे यह बालक मन ,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु दिगन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त ।”
अपनी एक कविता में वे मृत्यु
पर विजय पाने की आकांक्षा
रखते हैं न कि दुख से त्रस्त होकर
मृत्यु की शरण में जाने की ।

वे लिखते हैं-

” दे , मैं करूँ वरण
जननि , दुखहरण पद- राग – रंजित मरण।
———————

प्राण संघात के सिन्धु के तीर मैं
गिनता रहूँगा न कितने तरंग हैं ,
धीर मैं ज्यों समीरण करूँगा तरण।”

बुढापा निकट आने पर अब वे मौत को न तो ललकारते हैं और न ही विजयी होने की घोषणा ही करते हैं।
बस वे मौत को सहज भाव से देखते हैं। अब वे लिखते हैं-

“धीरे – धीरे हँसकर आई,
प्राणों की जर्जर परछाई।
छाया – पथ घनतर से घनतम,
होता जो गया पंक- कर्दम ,
ढकता रवि आँखों से सत्तम ,
मृत्यु की प्रथम आभा भाई।”

अपने अंतिम समय में वे विजय-पराजय के भाव से परे सांकेतिक अभिव्यंजना को प्रकट करते हुए लिखते हैं-

“मरा हूँ हजार मरण
पाई तब चरण- शरण।
फैला जो तिमिर – जाल
कट – कटकर रहा काल
आँसुओं के अंशुमाल ,
पड़े अमित सिताभरण।
जल- कलकल- नाद बढ़ा,
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा ,
विश्व उसी को उमड़ा ,
हुए चारू – करण सरण।”

तथा

“आग सारी फुक चुकी है ,
रागिनी वह रूक चुकी है ,
स्मरण में आज जीवन ,
मृत्यु की है रेख नीली।”

प्रख्यात समालोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा लिखते हैं कि निराला जिस कविता में संसार से विदा लेते हैं, उनमें उनकी अंतिम आकांक्षा ब्रह्म में लीन होने की नहीं बल्कि फिर से नया जीवन आरम्भ करने की है- ”

– वाद्य- छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से-
क्रीड़ाएं व्रीड़ा में परिणत। मल्ल भल्ल की-
मारें मूर्छित हुई , निशाने चूक गये हैं।
झूल चुकी हैं खाल- ढ़ाल की तरह तनी थी।
पुनः सबेरा , एक और फेरा है जी का ।”

15 अक्टूबर 1961 को इनका देहावसान हो गया। डॉक्टर रामविलास शर्मा लिखते हैं – “अपने अंतिम चरण (1950-1961) में निराला नये मनोबल से कविताएं रच रहे थे और इनमें हिन्दी संसार को वह ऐसा कुछ दे रहे थे ,जैसा कुछ उन्होंने पहले न दिया था।” निराला की प्रथम कविता ‘जूही की कली ‘ 1916) ‘ सरस्वती ‘ पत्रिका में प्रकाशन योग्य न समझकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने वापस भेज दी थी।आज यह कविता छायावाद की कुछ श्रेष्ठतम कविताओं में पररिगणित की जाती है। हिन्दी साहित्य के प्रख्यात समालोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा ने ‘ राग- विराग ‘ की भूमिका में लिखा है- सन् 23 में जब ‘मतवाला’ निकला, निराला ने उसके मुखपृष्ठ के लिए दो पंक्तियाँ लिखी-‘ अमिय गरल शशि- सीकर रविकर राग – विराग भरा प्याला पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।’
निराला ने सोचा था,‘मतवाला’ ऐसा पत्र होगा जिसमें जीवन, मृत्यु , अमृत और विष, राग और विराग- संसार के इस सनातन द्वन्द्व पर रचनाएँ प्रकाशित होगीं ।

किन्तु न ‘मतवाला’ इन पंक्तियों को सार्थक करता था ,न हिन्दी का कोई पत्र। इन पंक्तियों के योग्य थी केवल
निराला की कविता जिसमें एक ओर राग- रंजित धरती है- रँग गई पग – पग धन्य धरा-तो दूसरी ओर विराग का अंधकारमय आकाश : है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार!
प्रसिद्ध साहित्यकार दूधनाथ सिंह निराला जी पर लिखते हैं-‘ संसार के किसी भाग में ऐसे कवि बहुत कम होगें जो रचना स्तरों के अनेक रूपों को साथ- साथ वहन कर सकें और लगातार अनेकमुखी कविताएं रचने में समर्थ हो। इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को एक ही साथ अनेक स्तरों पर जिया। उनक अन्तः संगीत जितना प्रखर है उतना ही हिन्दी कविता को परम्परागत काव्य अभिजात्य से मुक्त कराने का प्रयास भी। वे दुःख, जर्जरता, आनन्द और उल्लास की सघनता , दोनों को व्यक्त करने वाले एक अप्रतिम कवि हैं। अर्थ – प्रसार से एक सनातन मौन की ओर उनकी कविता धीरे’ धीरे चलती है। यही ‘ मौन-मधु ‘ उनकी काव्य- रचना का बीज भाव है।इस रूप में निराला की
रचनात्मकता का कोई पूर्ण विराम नहीं है। परंपरा से सधा हुआ ,एक स्वतंत्र जीवन दृष्टि वाला विद्रोही काव्य- दर्शन ही उनकी काव्य – रचना का मूल – मंत्र है।’

महाप्राण निराला
महाप्राण निराला

 

निराला का कृतित्व वैविध्यपूर्ण है।इनका रचना- संसार इनकी उदार और विकसित लोकोन्मुखी सामाजिक चेतना का परिचायक है।अपने काव्य की विशेषताओं की ओर संकेत करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘ मैनें भाव, भाषा और छंद की उल्टी गंगा बहाई है।’  विषय- वस्तु की दृष्टि से देखें तो जहाँ एक ओर इन्होंने ‘ जूही की कली’ , ‘संध्या- सुंदरी ‘ जैसी कविताओं में प्रकृति के मानकीकरण की अपनी छायावादी प्रकृति का परिचय दिया है,वहीं ‘ राम की शक्तिपूजा ‘और ‘सरोज स्मृति ‘ जैसी उदात्त भावों से परिपूर्ण महाकाव्यात्मक कविताओं का सृजन किया है।
‘ ही की कली ‘ की इन पंक्तियों को पढ़िए-

” विजन – वन – वल्लरी पर
सोती थी सुहाग – भरी – स्नेह- स्वप्न- मग्न-
अमल- कोमल – तनु तरुणी – जूही की कली ,
दृग बन्द किये ,शिथिल, – पत्रांक में ,
वासन्ती निशा थी ,
विरह- विधुर – प्रिया – संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।”

कवि ने इस कविता में रूप, रस , गंध और स्पर्श के ऐन्द्रिय बिम्बों का प्रयोग किया है। इसमें प्रकृति का उद्दीनपरक वर्णन है । ‘ राम की शक्तिपूजा ‘ मुख्यतः तत्सम बहुल संस्कृत हिन्दी की काव्यकृति है।इसमें सामासिक शब्दों के प्रयोग से अर्थ ध्वनन पैदा किया गया है। नादानुरंजित शब्दों ,ध्वनियों के अंतर से भाषामें अर्थबोध का अंतर  दिखाया गया है। नाटकीय शैली में रचना का गठन हुआ है। प्रथम दृश्य राम और रावण के अपराजेय युद्ध का ,दूसरा दृश्य राम की सभा का और तीसरा दृश्य राम की शक्ति साधना का ।इसमें भाव तेजी से परिवर्तित होते हैं। इसमें कोमल,मधुर , ओजपूर्ण भावों का सफल संयोजन हुआ है। इस कविता में एक संदर्भ मिथकीय नायक राम का है तो दूसरा संदर्भ कवि के निजी जीवन का है और तृतीय राष्ट्र के जीवन का है। ‘ इस कविता के पौराणिक प्रतीक देश के उद्धार के लिए नैतिक शक्ति की साधना का संदेश देते हैं। कविता का आरम्भ अस्ताचलगामी सूर्य से होता है और कविता के अंत में नभ के ललाट पर प्रथम किरण फूटती है ।इस कविता के सौंदर्य को इन पंक्तियों में देखिए-

” कह कर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त , लक- लक करता वह महाफलक,
ले अस्त्र वाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन ,
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन,
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़
निश्चय, काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित
उदय:-
” साधु , साधु , साधक धीर ,धर्म- धन धन्य राम!”
कह , लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।”

‘ सरोज स्मृति ‘ जैसी उदात्त भावों से पूर्ण कविता भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।यह शोक- गीत है जिसे कवि पिता ने अपनी पुत्री के निधन पर लिखा है। इस कविता में निराला ने अपने मन की ग्लानि व्यक्त की है-

” कन्ये , मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका।”

दूसरी ओर इसमें कवि का अपनी साहित्यिक सिद्धि में प्रबल विश्वास  भी है-

” मैं कवि हूँ ,पाया है प्रकाश “
सरोज के निधन पर कवि पिता
स्वयं को शाप देते हुए लिखते हैं-
” हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर , मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के- से शतदल!
कन्ये , गत कर्मों का अर्पण
कर , करता मैं तेरा तर्पण! “

केवल शेक्सपियर को छोड़कर विश्व के शोक- गीतों में दुःख और क्षोभ की ऐसी विकट परिणति कहीं नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित छायावादी शैली में लिखा उनका खण्ड काव्य ‘तुलसीदास ‘ उनकी प्रौढ़तम रचनाओं में से एक है।इसका कथानक जनसामान्य में प्रचलित उस कहानी पर आधारित है जिसमें गोस्वामी जी को अपनी पत्नी
पर अधिक आसक्त बताया गया है।

इन्हें भी पढ़िए : जनकवि नागार्जुन

इस रचना के बारे में एक साहित्यकार ने लिखा है-” इस छोटे से कथा सूत्र को तुलसी के मानसिक संघर्ष, मनोवैज्ञानिक तथ्यों के उद्घाटन तथा रहस्य भावना के संगुम्फन द्वारा संपुष्ट करते हुए इसे काव्यात्मक उत्कर्ष की अपेक्षित ऊँचाई तक पहुँचा दिया गया है। इस लम्बी कविता की इन मार्मिक पंक्तियों को पढ़िए-

” देश- काल के शर से बिंधकर
यह जागा कवि अशेष, छविधर
इनका स्वर भर भारती मुखर होएँगी,
निश्चेतन, निज तन मिला विकल ,
छलका शत- शत कल्मष के छल ,
बहती जो , वे रागिनी सकल सोएँगी।”

इस कविता में निराला जी के देश की पराधीनता से मुक्त कराने का संकल्प है। कहने का तात्पर्य यह है कि निराला
जी के काव्यों में राष्ट्रीय चेतना , लोकमंगल और मानव – करणा के भाव भरे हुए हैं। वे संभवतः प्रथम छायावादी कवि हैं जिन्होंने सर्वप्रथम प्रगतिशील विचारों को अपनी कविता में स्थान दिया। ‘ भिक्षुक ‘ , ‘ विधवा’ , ‘तोड़ती पत्थर’ , ‘बादल- राग’ और ‘ कुकुरमुत्ता ‘ जैसी कविताएं ऐसी कविताएं हैं जिनमें उन्होंने समाज के दलित, शोषित, पीड़ित और उपेक्षित जनसमुदाय के दुःखों का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है।

महाप्राण निराला जी की रचनाएँ!

‘ विधवा ‘ कविता की ये पंक्तियाँ पाठकों की आँखों से आँसू छलका देती हैं-

” कौन उसको धीरज दे सके ,
दुःख का भार कौन ले सकें?
यह दुःख वह जिसका नहीं कुछ छोर है ,
दैव अत्याचार कैसा घोर और कठोर है।
क्या कभी पोछे किसी के अश्रु- जल?
या किया करते रहे सबको विकल ?
ओस- कण – सा पल्लवों से झर गया
जो अश्रु , भारत का उसी से सर गया।”
‘भिक्षुक ‘ कविता की इन मार्मिक पंक्तियों को पढ़िए-
“चाट रहे हैं जूठी पत्तल कभी सड़क पर खड़े हुए ,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए। “
‘तोड़ती पत्थर’ की इन पंक्तियों को पढ़िए-
“देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा , छिन्नतार ,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैनें वह नहीं जो सुनी थी झंकार। “
‘बादल- राग ‘ की इन पंक्तियों को
पढ़िए-
“जीर्ण बाहु , है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर ,
ऐ विप्लव वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार ,
ऐ जीवन के पारावार। “
‘ तथा ‘ कुकुरमुत्ता ‘ की इन पंक्तियों
को पढ़िए-
” पहाड़ी से उठे – सर ऐंठकर बोला
कुकुरमुत्ता-
” अब , सुन बे , गुलाब ,
भूल मत जो पायी खुशबू , रंग- ओ- आब ,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट ,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट। “
उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘ जागो फिर एक बार ‘ का स्वर उद्बोधनात्मक
है।इस कविता की इन पंक्तियों को पढ़िए-
” योग्य जन जीता है ,
पश्चिम की उक्ति नहीं-
गीता है , गीता है-
स्मरण करो बार- बार-
जागो फिर एक बार!”

उनकी कविता में राष्ट्रीय चेतना के साथ- साथ विश्व- दृष्टि की भी गहरी अभिव्यक्ति है। उन्होंने ‘ सम्राट अष्टम एडवर्ड‘ के प्रति कविता लिखकर यह प्रमाणित कर दिया कि उनकी दृष्टि देश, वर्ण, धर्म आदि की सभी दीवारों को तोड़कर मानवीय संबंधो और संवेदना के नाते किसी भी व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखने को प्रस्तुत हैं । यह कविता ‘सरस्वती पत्रिका ‘ के जनवरी-1937 अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘ जो करे गंध-मधु का वर्जन वह नहीं भ्रमर, मानव मानव से भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा, वह नहीं क्लिन्न , भेद कर पंक निकलता कमल जो मानव का वह निष्कलंक हो कोई सर था सुना, रहे सम्राट! अमर- मानव के घर! ” इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला की दृष्टि विश्वमानवतावाद की मनोभूमि पर व्यापक, विराट और आधुनिक है। निराला की कविताओं को तीन चरणों में डाॅक्टर राम विलास शर्मा ने बाँटा है।प्रथम चरण ( 1921- 36 ) , द्वितीय चरण (1937-46 ) और तृतीय चरढ(1950- 61 )। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि इन तीन चरणों में कविताएं विभाजित करने से आप देखेंगे कि निराला की कला में विकास होता है या ह्रास या वह ज्यों की त्यों बनी रहती है।

निराला विद्रोही चेतना के कवि थे।उनका काव्य अनेक प्रतीकों से भरा हुआ है। उसमें संघर्ष, क्रांति और नये जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं। उनकी कविता छंद के बंधन को तोड़कर नये काव्य रूपों का निर्माण करती और जीवन के अनुकूल स्वाधीन छंद का निर्माण करती है । निराला द्वारा सृजित काव्यों में ‘अनामिका’, ‘परिमल ‘ , ‘गीतिका ‘,’ तुलसीदास ‘ ‘ कुकुरमुत्ता ‘ , ‘ अणिमा ,’ बेला , ‘नये पते ‘ ‘अर्चना” आराधना ‘ तथा ‘ गीत पुंज ‘ हैं। इनका कहानी संग्रह ‘ चतुरी चमार’ ‘ सुकुल की बीबी ‘ , ‘ लिली ‘ और ‘ सखी ‘ है। ‘अप्सरा ‘ ,’अलका ‘ ,’ प्रभावती ‘ ,’ निरूपमा ‘ , उच्छृंखल’ , ‘ चोटी की पकड़ ‘ तथा ‘ काले कारनामें ‘ उनके उपन्यास हैं। उन्होंने निबंध, रेखाचित्र, आलोचना, नाटक तथा जीवनी भी लिखा है। इसके अतिरिक्त की अनुवाद भी किए हैं। एक आलोचक के अनुसार-” निराला के सम्पूर्ण काव्य-जगत का निरीक्षण- परीक्षण करने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इन्होंने आत्म- संघर्ष को काव्य-संघर्ष में ढ़ाल कर आत्मपरकता से समाज परक होने का नमूना प्रस्तुत किया है।” अपने मुक्त छंदों में भी इन्होंने गेयता और संगीतात्मकता की पूर्ण रूप से रक्षा की है।

– अरूण कुमार यादव

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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