‘जो भीतर हैं वे बाहर वालों को घुसने नहीं देते,
ये गन्दी बात है मंदिर में ऐसी गन्दगी होना ।।
‘ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ-१९
‘धूप की छाँह’ १९७५ से लेकर ‘ग़जलों ने लिखा मुझको’ २०१७ तक की लम्बी काव्य यात्रा में पाठक जी के यहाँ कविता,गीत एवं ग़जल के साँचे में मुक्त उच्छल भावनाओं की मुक्त तरंगे है,हिमनद सी शीतलता और कलकल करते उद्द्याम झरने है तो दूसरी विचारों की मजबूत कड़ी है।राजनैतिक चेतना है,राजनैतिक विसंगतियों पर करारा प्रहार है।लगभग चार दशकों की काव्य यात्रा में पाठक जी का हिन्दी ग़जल गो पुष्ट हुआ है।इनके यहाँ ग़जल न तो ग़ज़ाला की चीख़ है और न ही आशिक और माशूक के बीच शिकवों-शिकायतों से भरी गु़फ्तगू है; न तो यह रागदरबारी है और न ही केवक तसव्वुफ़ की उड़ान —
सपने बड़े मीठे हैं वादे बड़े मोहक है,
मिसरी घुली रहती है सरकार की बातों में ।।
ग़ज़लों ने लिखा मुझको –पृष्ठ – ५८
नंन्दलाल पाठक के यहाँ ग़ज़ल सम-सामयिक परिवेश तथा मानव जीवन के कटु सत्यों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है।जीवन की खुरदरी जमीन पर यथार्थ का अंकन मात्र नहीं समय से मुठभेड़ है समाधान के लिए जद्दोजहद है। पाठक जी के पास ‘भाषा की लोकधर्मिता’ के साथ-साथ `अभिव्यक्ति की प्रखरता’ है।परंपरा को नई सोच, नई दृष्टि,नए धरातल प्रदान कर,सुदृढ़ बनाते हुए हिन्दी ग़ज़ल साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण प्रदेय है ।जिंदगी के प्रति ग़जब की जिजीविषा है –
जिंदगी का अर्थ है पक्के इरादों का सफ़र,
कट गये जब पाँव तब बैसाखियाँ चलती रहीं।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको, पृष्ठ- २२
‘ग़ज़लों ने लिखा मुझको’ संग्रह के एक-एक शब्द में चाकू जैसी धार है।यह रूढिय़ों, अन्धविश्वासों, सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है,विद्रोह है, आक्रामकता है, बारुद जैसा विस्फोटक है,जो तन मन को आन्दोलित करता चलता है।तेवरी गुस्सैल, आक्रामक,जुझारू,संघर्षशील अवश्य है,लेकिन वह अनुशासन प्रिय है। ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करते, जो गलत हो, भ्रामक हो, विध्वंसक हो-
आदर्शों की चिता जल रही युग का क्रन्दन देख रहा हूँ ।
धधक रही है अंतर ज्वाला मानस मंथन देख रहा हूँ ।।
ग़ज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ ६४
पाठक जी ने काफी करीब से लोकजीवन के यथार्थ को देखा है। तो दूसरी तरफ लगभग पाँच दशकों के मुंबई महानगर प्रवास के दौरान महानगरीय जीवन, महानगरीय चरित्रों के साथ जीवन जिया है। एक तरफ गहन, गझिन, गवई मानवीय संवेदना और भारतीयता और भारतीय संस्कृति तो दूसरी तरफ महानगरीय जीवन, शुष्क संवेदना,अर्थ पक्ष की प्रधानता, रिश्तों में मिलावट, वस्तुओं की बात करना तो जैसे बेमाने है। वे अपनी गजलों में निरीक्षण और प्रमाणिकता दोनों पर बल देते हैं। अपनी अनुभूतियों, धारणात्मक मूल्यों, दार्शनिक स्थापनाओं और उद्ॢबोधनों को साथ लेकर चलते हैं।
‘मेरे,तेरे,तमाम दुनियाँ के,
दिल की आवाज़ है ग़ज़ल मेरी ।।’
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ-१७
‘धूप की छाँह’ और ‘ग़जलों ने लिखा मुझको’ ग़ज़ल के आईने में हम अपने समय से संवाद करते ग़ज़लकार के व्यक्तित्व और सरोकार को अच्छी तरह समझ सकते है। जीवन के सरोकार नन्दलाल पाठक को हमेशा आंदोलित किए रहता है। जीवन की दुर्धर जमीन पर समय की दराती से कटते आम आदमी की भूख-प्यास ,जीवन संघर्ष,असुरक्षा का भाव, आक्रांत मनुष्य की पीड़ा का ऐसा आख्यान ग़जलों ने लिखा मुझको’ है। ‘ग़ज़ल गों की बेबाक अभिव्यक्ति है। अपने सरोकारों के प्रति सजग ग़जल गो पाठक जी का घोषणा पत्र है.
‘आने वाला है इनकलाब जो कल,
उसका आग़ाज है ग़ज़ल मेरी।।’
गज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ-१७
लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर तानाशाही,फासीवादी व्यवस्था से जन आक्रांत है। व्यवस्था के नाम पर अव्यवस्था फल-फूल रही हैघ्जन सेवक अर्थात राजनेता और प्रशासक अर्थात अधिकारी निरंकुश,जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद के नाम पर अच्छी-खासी समाजवादी घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के ७० सालों में समाजवाद न आ सका,आम जन के घर तक खुशहाली अपने समय का सबसे बड़ा झूठ है ।अब आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं के टुच्चे भाषण देने,जनता का पैसा डकारने, जन विरोधी विधेयक लाने, साम्प्रदायिक दंगे भड़काने, पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने, लाठीचार्ज कराने, तस्करी करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों के कुंड में स्वाहा होते चले गये । नेता-अपराधी-अधिकारी की गलबहियाँ चल रही है —
हमें रसातल तक पहुँचाने की मिलजुल कर तैयारी है,
नेता अपराधी दोनों का प्रेमालिंगन देख रहा हूँ ।।
गज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ ६४
मौजूदा माहौल में आदमी, आदमी न रहकर शैतान बन गया। यह शहर के मशीनीकृत होने की सूचना मात्र नहीं बल्कि संवेदनहीनता का दस्तावेजीकरण करने का प्रयास है।अपने समय को रोशनाई से इतिहास के पन्नों में संजोने की ज़िद है की कैसे हंसता-खेलता अतिसंवेदनशील मनुष्य संवेदनहीनता के दौर से गुजर रहा है।ज़हर के घूट की मानिंद क्षण-प्रतिक्षण बस जिए जा रहा है । जीवन जीने का कोई महत उद्देश्य है या मात्र भूख के पीछे की अंधी दौड़-
जंगल में सियासत के देखो जिस ओर उधर हैं नरभक्षी,
इंसान नहीं कर सकता वह नेता को जो करना पड़ता है ।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ-२५
ग़ज़लकार ख़म ठोककर अपने समय को चुनौती देता है। व्यवस्था के सामने आम अवाम की आवाज बुलंद करता है। राजनैतिक अंधता के इस दौर में खुला आवाहन करता है की वर्तमान परिवेश विषाक्त होता जा रहा है. अब सच को सच की तरह न देख कर ख़ास किस्म के चश्में से देखा जा रहा है। जीवन में छीजते मूल्यों की पड़ताल है और जीवन संजोने की ज़िद भी है। ग़ज़ल के फर्म में अपने समय तथा परिवेश से गुफ्तगू है,भूख-प्यास से बिलबिलाती,तड़पती जनता,सत्ता के नशे में अंधे रहबर से-
हवन की आग में आहुति बनेंगे आज के बिषधर,
जलानी हो कई भी आग तो इर्धन ज़रूरी है ।।
गज़लों ने लिखा मुझको –पृष्ठ -२८
पाठक जी राजनैतिक दोगलेपन ,टूटते मूल्यों सिद्दांतों की जबरजस्त खोज-खबर लेते है ।सिद्दांतों की जगह येन-केन प्रकारेण सत्ता पा लेना राजनीतिज्ञों का राजनैतिक, चरित्र मूल्य हो चुका है ।राजनैतिक विभीषणों के चेहरें से नक़ाब उतारने के लिए जद्दोजहद करते दिखाई पड़ते है।राजनैतिक अवमूल्यन,दलबदल,षड्यंत्रों का बोलबाला हैघ् येन-केन प्रकारेण सत्ता हस्तगत करना राजनैतिक चरित्र बन गया है –
जो कुनबा तोड़कर अपना हमारे घर चला आये,
हमें हर एक कुनबे से विभीषण की ज़रूरत है ।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको –२९
लोकतंत्र के मंदिर में अवसरवाद का फलना-फूलना छप्पन दलों के गठजोड़ से सत्ता पर काबिज सत्ताधीशों के छल-छद्म ,प्रपंच पर गहरा प्रहार किया है। अब जन सेवक,जन नायक की जगह कुशल तोड़-जोड़ करने वाला कुशल प्रबंधक बहुमत दिखाकर सत्ता पर काबिज हो जाता है। अब सेवाधर्म की जगह लोकतंत्र में प्रबन्धतन्त्र धर्म प्रधान होता चला जा रहा है. अपने समय को आईना दिखाते है —
भले ही अल्पमत में हैं हमें बहुमत दिखाना है,
ये संसद है,यहाँ केवल प्रबंधन की ज़रूरत है ।।
– ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ -२९
सत्ता के लिए विविध विचारधाराओं के लोगों का एक मंच पर केवल सत्ता सुख के लिए आना लोकतंत्र और भारतीय अस्मिता और अवाम दोनों के लिए घातक है। नारे, सौदेबाजी,गुणा-गणित के बाद मलाईदार मंत्रालयों पर काबिज होने के बाद जनहित को तिलांजलि देकर धनार्जन को राजनीति का परमलक्ष्य मानना की पता नहीं सत्ता फिर मिले या नहीं कोई बात नहीं जितना लूट सकते है लूट ले,घोटालों का दौर शुरू हो जाता है पाठक जी का गज़ल गों अपने समय से मुठभेड़ करता चलता है। कलम विद्रोह करती है,कलमकार के सरोकार मुखर है। वह सत्ता को आईना दिखाता है
दलाली कोयले की हाथ काले कर गयी,पर अब,
सुना है मुँह हुआ काला है दर्पण की ज़रूरत है ।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ३०
राजनीति में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं,गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है,धर्म,सुधार,योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह एक धोखे भरा खेल,खेला गया है।वैचारिक उग्रता भर गयी है, जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।पाठक जी की ग़जल दुष्यंत कुमार की परम्परा को आगे ले जाने का काम करती हैघ्वही तपिस,वही धार,वही तेवर –
माहौल में पहले तो नहीं इतनी घुटन थी,
ठिठकी हैं हवाएँ तो कहो आँधियाँ चले ।।
– ग़ज़लों ने लिखा मुझको, पृष्ठ -४०
इस बात का इतिहास साक्षी है की कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता हुआ भेडिय़ापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने लगा है। पाठक जी के यहाँ भी यहीं आग है। यह मात्र शेर नहीं समय से मुठभेड़ करते आम आवाम के प्रति जागरूक कलमकार के सरोकार है। जो ऐसा करने के लिए बल देते है। भयावह परिवेश के आगोश में जब मानवीय संवदेना छटपटाती है घ्कलम फुफकार उठती है,एक तरफ व्यवस्था की विसंगति को उजागर करना तो दूसरी तरफ व्यवस्था के षड्यंत्रों से अवाम को सावधान करना। यह शेर दूर तक मार करता है। आजादी के बाद फैले छल-छद्म का लेखा-जोखा इन दो पंक्तियों में देखा जा सकता है ।क्या सत्ताधीश तो क्या विपक्ष. किसी ने भी अपनी भूमिका का निर्वाह इमानदारी से नहीं किया है घ्सबने जड़ता का सिंचन किया –
विष की,अमृत की,अब कोई पहचान नहीं है ।
अभिशाप से निकला है जो,वरदान नहीं है ।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ -४४
साहित्य का मुख्य स्वर मूलत: प्रतिरोध ही होता है। लेकिन यह भी गौर करने वाली बात है कि साहित्य का विरोध मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। प्रतिरोध में जीवन की बेहतरी की माँग रहती है तो दूसरी तरफ रचनात्मकता की माँग रहती है। दुखों से मोचन कैसे हो,जीवन में शिवत्व की स्थापन मूल उद्देश्य होता है. पाठक जी को भी इन्हीं मूल्यों की तलाश है-
बोझिल हैं सभी दुःख से तो कुछ सुख्ा से हैं बोझिल,
ऐसा नहीं कोई जो परेशान नहीं है ।।
– ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ -४४
मनुष्य को उसके लक्ष्य के लिए कर्म करने को प्रेरित करती है, जिसे वह प्राप्त नहीं कर सका पर जिसकी कल्पना,जिसका सपना वर्तमान की वास्तविकता में कहीं अधिक मूल्यवान है। आज राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में फैले पूंजीवाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण और नये ध्रुवीकरण के कारण हमारे देश का प्रजातांत्रिक ढांचा चरमरा गया है –
हमने आज़ादी का युद्ध लड़ा था,कौन यकीन करेगा,
सूख गया आँखों का पानी बुझी-बुझी अंतर ज्वाला ।।
गज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ -४५
भारतीयता और भारतीय संस्कृति पर घिरे काले बादलों से मुक्ति कैसे मिले ।सवा सौ करोड़ अवाम के भाग्य से खेलने वालों के जहर के दन्त उखाड़ फेकने का आवाहन करते है ।सम्पूर्ण प्रक्षालन से पूर्व पूरा खाका खीचकर रख देते है साफतौर पर सचेत करते चलते है की यह क्रमशः सुधार का दौर नहीं बल्कि यह क्रांति का दौर है।आमूल व्यवस्था परिवर्तन कलमकार का एकमात्र लक्ष्य लक्षित होता हैघ् सम्पूर्ण तालाब का पानी बदलने के बाद ही विष कम हो सकता है घ्जन-जन का आवाहन करते है –
या तो उनका जहर छीन लो या उनके विषदंत उखाड़ों,
अपने आस्तीन में कितने साँपों को अब तक पाला।।
– ग़ज़लों ने लिखा मुझको,पृष्ठ -४६
पाठक जी का गजलकार अपने समय की दराती से कटते आम आदमी की पीड़ा ,भूख ,प्यास को वयां करने की प्रक्रिया में ग़ज़ल गो ,नफासत ,नजाकत ,हाला ,प्याला ,साकी ,सुरा से दूर जीवन की तपन ,जीवन संघर्ष ,को शब्द देकर मात्र गजल पढ़कर मनोरंजन करने की जगह विसंगतियों से दों-दों हाथ करने का हौसला रखता है।राजनीति की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार है।अयोध्या,काशी ,मथुरा,तथा हिंदुत्व की हुंकार के बीच बिखरती सामाजिक समरसता के साथ मुठ्ठी बाँधे खड़े है घ्धार्मिक उन्माद के कारण घुटते वातावरण में भोपाल गैस त्रासदी छाने लगी हैघ् धार्मिक उन्माद के दौर से गुजर रहे देश को सावधान करते है घ् असंतोष का सिंचन विपक्ष का धर्म बन गया हैघ् इसी टूल्स के सहारे सत्ता की सीढियाँ चड़ना चाहते है तो सत्ता दमन-दलन जुगाड़ के सहारे सत्ता में बनी रहना चाहती है –
समूचे देश का दम घुट रहा है,
समूचा देश है भोपाल देखो ।।
– ग़ज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ -५२
राजनेताओं के द्वारा दिखाए गए स्वप्न महल,बड़े-बड़े वादे,भूमी पूजन,चिकनी चुपड़ी बातों के सहारे मतदाताओं को अपने खेमे में खडा करने की जद्दोजहद,सफलता और सफलता मिलाने के बाद स्वप्न महल खड़ा करने वालों से धोखा मिलना स्थाई भाव चुका है ।पाठक जी इस बात का शिनाख्त करते चलते है –
सपनों की नुमाइश खूब रही,वादों के पुलिंदे क्या कहने ।
बातों में जो उनकी रस है कहाँ कोकिल की सुरीली तानों में।।
-ग़ज़लों ने लिखा मुझको पृष्ठ-५३
अब नेतृत्व अवाम के बीच से नहीं बल्कि विज्ञापन के सहारे खड़े किये जा रहे हैघ्जितनी अच्छी मार्केटिंग उतना अच्छा,बड़ा ,महान नेता और नेतृत्वघ्विधिवत इवेंट मैनेजमेंट के सहारे सत्ता के शिखर पर स्थापित हुआ जा सकता है घ्हाईटेक चुनाव प्रक्रिया,अरबों का ठेका मात्र इसके लिए की इवेंट मैनेजर सत्ता की वैतरणी के रास्तों में आने वाले सभी अवरोधकों को दूर करा देगा घ्चरित्र,मूल्य,सेवा,जिम्मेदारी,ईमानदारी और प्रशासनिक अनुभव सारे गुण कुछ सप्ताह में अर्जित किए जा सकते है घ्अब लौह पुरुष नहीं बल्कि लता पुरुष सत्ता के शिखर पर खड़े दिखाई पड़ रहे है घ्सच्चा जन सेवक दूर कही रोता-सिसकता दिखाई पड़ेगा घ् जन की हत्या देखी नहीं जाती और जन के नाम पर अत्याचार सहन नहीं होते –
नेता उभर रहा है अखबार के सहारे ।
चढ़ती है लता जैसे दीवार के सहारे ।।
ग़ज़लों ने लिखा मुझको- नन्दलाल पाठक,१०६
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका की असफलता के बाद नज़र न्यायपालिका की ओर जाती है. अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने में लोकतंत्र का तीसरा स्तम्भ भी असमर्थ है. संवैधानिक व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है,संविधान न्याय देने में असमर्थ अनुपयुक्त सिद्ध होने लगा हैघ्चारों तरफ अफरा-तफरी का आलम है। न्याय की देवी के इर्द-गिर्द गंदगी का अम्बार है. भयानक निराशा का दौर है अब तो लगता है दिन इतने विपरीत आने वाले है की अपराध करना न्याय सांगत होगा. न्यायपालिका की विफलता ने लोकतंत्र में न्याय की आशा करने वाले करोड़ों लोगों के मन में भय का संचार किया है
जहाँ आज न्यायलय हैं कल वहा स्वच्छ शौचालय होंगे ।
ले लो खुद कानून हाथ में, ऐसा तुम्हें विधान मिलेगा ।।
गज़लों ने लिखा मुझको, ८७
भविष्य के प्रति आस्था नंदलाल पाठक के गजल की एक विशेषता है। जीवन और जगत के बीच घटने वाली छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच खुश रहने का और उज्जवल भविष्य के सपने देखने का प्रयास भी मिलता है। संसार की समस्त रचनाशीलता जिस समग्र जीवन की तलाश कर रही है,और चुनौती रूप में उसके सामने खड़ी हो रही है।़ गजल गो को अपनी कलम पर पूरा विश्वास है, समय बदलेगा, परिस्थितियाँ जीवन के अनुकूल होगी घ्जीवन रचना की संकल्पना को पूर्णत्व प्राप्त होगा।
-डॉ॰ उमेश चन्द्र शुक्ल
एसोसिएट प्रोफेसर
अध्यक्ष ,हिन्दी विभाग
महर्षि दयानंद कॉलेज परेल ,मुंबई