परछाई
मेरे भीतर, भीतर घना कोहरा था मगर वैसा नही, जैसा बाहर होता है,
जहाँ जहाँ अनुपस्थित थी वो
वहाँ वहाँ उपस्थित था मैं
उसकी परछाई जैसे उतर रही हो
मेरे भीतर,
भीतर घना कोहरा था
मगर वैसा नही, जैसा बाहर होता है,
उसकी उँगलियों से लिखा
मेरी पीठ पर नाम
आज भी दर्ज है किसी दस्तावेज की तरह
तमाम ठंड के बावजूद
जैसे कुछ सुलग रहा है वहां
बन्द कमरे में कुछ नहीं था
बस था तो केवल उसका होना
बारिश की तरह गिरता एकान्त
और समय की फिसलन भरी सड़क पर
गिरता मैं
तुम्हारी उपस्थित सोखती है मेरी नमी
जैसे धनी धूप ये सूख जाता है कोहरा..!
सतीश चंद्र श्रीवास्तव
What's Your Reaction?