पुनर्जन्म: श्रीधर सरकारी सेवा में रहकर भी भ्रष्ट सरकारी सेवकों के कुप्रभावों से अपने को दूर रखकर बड़ी ही ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा के साथ सरकारी कामकाज एवं दायित्वों को ससमय पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था।
वह अपने बचे समय का उपयोग घर के लोगों को सदाचरण एवं कर्तव्यबोध से सराबोर करने में किया करता था। उसके ही साथ सरकारी सेवा में आए उसके मित्र रामदीन की माली हालत श्रीधर से कहीं ज्यादा अच्छी थी,जिसे देख उसकी पत्नी और बच्चे मन ही मन श्रीधर की नेकनीयती को कोसा करते थे पर श्रीधर हर रोज की तरह आत्मविश्वास से लबरेज हो अपनी दिनचर्या का अनुसरण करता। उसे रामदीन से कभी भी ईर्ष्या नहीं होती। एक दिन की बात है। बहुत दिनों बाद छुट्टी के दिन बाजार में सब्जी खरीदते वक्त श्रीधर की नजर रामदीन पर पड़ी तो वह उसे प्रेम पूर्वक समझाने लगा कि वह अपने बाल बच्चों पर कम से कम अपना प्रभाव ना छोड़े वरना जब सच्चाई सामने आएगी तब उनके बेटे-बेटियां भी कहीं उससे नफरत ना करने लगें। रामदीन को श्रीधर की बातें अटपटी लगती थीं। रामदीन कहता-आखिर तुम्हारे ईमानदार बने रहने से भ्रष्टाचार तो नहीं मिट सकते! फिर तुम इस आचरण को अपनाने में परहेज क्यों करते हो? जहां ऊपर से नीचे भ्रष्टाचार का बोलबाला हो वहां सिर्फ तेरे और सिर्फ तेरे भ्रष्टाचारी नहीं होने से क्या मानते हो सिस्टम सुधर जाएगा? कभी नहीं।
मैं तो वही करता हूं जो सिस्टम कहता है, चाहता है।
और तो और तुम्हें पता होना चाहिए कि महीने के अंत में मिलने वाली पगार बर्फ की सिल्ली के समान है। वह धीरे-धीरे गलती जाती है। उसे गलने से बचाने के लिए उसके ऊपर लकड़ी के बुरादे को बिछाना जरुरी होता है। ऊपरी आमदनी भी यही लकड़ी के बुरादे भर ही तो हैं।
परंतु श्रीधर आज दृढ़ होकर पूछता ही रहा कि क्या सिस्टम यह कहता है कि किसी व्यक्ति का काम हो भी जाए और जब तक उससे कुछ रूपये पैसे ना मिले तब तक यह कहो कि उसका तो काम हुआ ही नहीं।
अब छोड़ो भी,कहो कैसा चल रहा है? बच्चे सब ठीक-ठाक तो है ना? रामदीन ने बड़े़ ही व्यंग्य के लहजे में पूछा।
सब ठीक-ठाक है। बस चाहता यही हूं कि इसी तरह बाकी बची सेवा कट जाए फिर तो सेवानिवृति के दौरान आई व्यस्तता में कमी को दूर करने के लिए अभी से ही कुछ साहित्यिक अभिव्यक्ति देने और उसे लिखने की आदत डालने की सोच रहा हूं,श्रीधर ने बड़े़ ही आत्मविश्वास के साथ कहा।
मेरे पास तो तुम्हारे जैसा लिखने-पढ़़ने का वक्त बचता ही नहीं है। अब देखो सीनियर आफिसर तो सभी लोगों से सीधे मुंह बात तो कर नहीं सकते। उनकी भी प्रतिष्ठा है। वे रिजर्व रहना ही ज्यादा पसंद करते हैं और इधर लोगों का काम भी होना है। आफिसर कब अंदर और कब बाहर है, इसकी तो मुझे ही जानकारी रखनी पड़़ती है। लोगों के पेंडिंग काम हो उसे भी आफिसर को देखते हुए मुझे ही खड़े़ होकर कराना पड़़ता है। अगर इस एवज में कोई व्यक्ति मुझे उपकृत करता है तो इसमें किसका नफा और किसका नुकसान ?
मेरा तो सारा समय समाज के लोगों के काम निपटाने में ही गुजर जाता है। यूं कहो कि समय ही कम पड़़ जाता है।
श्रीधर से रहा नहीं गया। वर्षों से वह रामदीन से एक सवाल पूछना चाहता था। आज उसे उस सवाल पूछने का अच्छा अवसर मानों मिल ही गया था। वह रामदीन से पूछ ही बैठा-अच्छा रामदीन बताओ, तुम जो कुछ भी करते हो चाहे वह अपने अफसरों की झूठी चापलूसी हो या फिर अवसरवादी बन सामान्य लोगों से रूपये-पैसे ऐंठने के काम, क्या यह सब अपने बाल बच्चों से या फिर अपनी पत्नी से कभी साझा करके देखा है ?
अरे! क्या कहते हो? यह सब भला घर के लोगों के साथ साझा करने की बातें होती हैं ? वह विस्मय में आकर बोल उठा।
क्यों? आफिसरों से मिलकर उसकी काली कमाई में साझेदार बनकर हर रोज रूपये घर लाते हो और बड़े़ ही मासूमियत से उन पर झूठी सफेद चादर डाल अपनी भोली-भाली पत्नी के हाथों में डाल जाते हो और बड़े़ ही गर्व से कमाऊ पति होने का अहसास करा जाते हो। वह भी भोली सूरत लिए बिना कोई प्रश्न किए, पूछने की जरूरत भी नहीं समझती कि तुम रूपये लाए कहां से ?
मुझे अब भी याद है कि एक बार भाभी के द्वारा इस पर सवाल किए जाने से तुमने उसे सदा के लिए छोड़ देने की धमकी तक दे डाली थी। उस दिन से भाभी तेरी आदत को नियति मान कर हर चीज स्वीकारती आ रही है। तेरी हरकतों का विरोध करने से ज्यादा उसे असहजता से सह लेना उसकी भी मानों नियति बन गई है।
रामदीन की पत्नी राधा अपने पति की काली कमाई का उपयोग भूल से भी अपने बाल-बच्चों की भलाई में खर्च नहीं करती। वह एक संस्कारी महिला थी। रामदीन भले ही अपने मन से जो कुछ उपयोग की वस्तुएं घर लाता, वह अलग बात होती। पर महीने के अंत में मिलने वाली पगार पर उसका ध्यान बरबस टिका रहता। कभी-कभी माहवारी वेतन देर से मिलने पर उसे असहजता का भी अनुभव होता पर उसे वह ये सोच सहजता से झेल जाती कि देर भले हो पर उसे मिलने में अंधेर तो नहीं ही था। कुछ दिनों आगे-पीछे वह उसे रामदीन के माध्यम से मिल जाता था और वह महीने भर के बजट को अतिबुद्धिमत्ता से व्यय करने में अपने आप पर गर्व महसूस करती। पर उसका मन हम्ोशा उद्विग्न रहता। यह सोच कि कहीं वह भ्रष्ट आचरण में लिप्त रहते-रहते कानून की गिरफ्त में ना आ फंसे। तब क्या वह समाज में उसी तरह मुंह दिखाने के काबिल रह पाएगी? क्या उसके भोले-भाले बच्चे अपने साथियों के बीच उसी स्वाभिमान के साथ अपने सर उठाकर समाज में रह सकेंगे? मैं सोचती हूं, रामदीन क्यों नहीं सोच पाता? मैं तो उससे कब का कह चुकी हूं कि मुझे उसकी काली कमाई के रूपये नहीं चाहिए।मैं तो तब घोर अचरज में पड़़ जाती हूं जब रामदीन अपने बेटों से बड़ी-बड़ी बातें करता है। बड़े-बड़े सपने दिखाता है उसे कि वह मन से पढा़ई कर देश और दुनिया का नाम रौशन करे। बुरी आदतें ना पाले, वगैरह-वगैरह। बच्चों को रामदीन समझाने एवं अच्छी शिक्षा देने में कोई कंजूसी नहीं करता पर खुद वो वैसा करने में क्यों अपने को असहज पाता है, यह सब बातें उसकी पत्नी को हमेशा सालती रहती।
इधर सरकार ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के वर्षों से खाली पड़े़ विभिन्न पदों की भर्ती का विशेष अभियान चला रखा था। सरकारी दफ्तरों में जाति प्रमाण पत्रों के बनवाने की मानो होड़़ सी लग गई थी। रिक्तियां जो ढ़े़र सारी थीं। इधर प्रमाण पत्र बनाने वालों की संख्या में सभी दफ्तरों में कमी देखी जा रही थी। कुछ लोग अगल-बगल तो कुछ नजदीक संबंधों की दुहाई देकर दफ्तरों में अपना काम समय रहते निकलवाने की जुगत में भिड़े थे। उसी जुगत में रामदीन के बड़े लड़के के दोस्त का बड़ा भाई रमेश भी था जिसने चार दिन पहले अपनी जाति का प्रमाण पत्र लेने के लिए दफ्तर में अर्जी दी थी परंतु अब तक उसे प्रमाण पत्र नहीं मिल पाया था। आज जब उसने दफ्तर में अपने प्रमाण पत्र के बारे में तहकीकात की तो उसे दफ्तर के ही एक कर्मचारी ने २०० रूपये की मांग की थी तो वह ठिठक गया था।
उसे याद आया कि क्यों नहीं वह अपने छोटे भाई के दोस्त अनिल से इसमें मदद ले। उसके पिता तो सुना है इसी दफ्तर में काम करते हैं। पर मैं उसे और वे मुझे पहचानेंगे कैसे, उस पर तब तो और जबकि प्रमाण पत्र बनवाने वालों की इतनी भीड़ हो और तो और दो सौ रूपये के लिए अगर मैं अपने छोटे भाई का सहारा ले, थोड़ी बहुत पैरवी भी कराऊं तो कहीं वे लोग ऐसा ना सोच लें कि हमारी औकात भी क्या इतनी नहीं? फिर कहीं मेरे छोटे भाई की उस परिवार से सहज और प्राकृतिक रूप से उपजी दोस्ती की फसल कहीं ना उजड़ जाए।
सुरेश का हृदय विशाल जरूर था परंतु जीवन उतना ही कंटक पूर्ण, पर बात स्थाई नौकरी व जीवनयापन की थी तो उसने मन बना ही लिया कि वह अपनी मां के उसी दफ्तर से प्राप्त वृद्धापेंशन की राशि,जो अब तक पूरी तौर पर खर्च नहीं हो पाई थी, से दो सौ रूपये लेकर कल दफ्तर खुलते ही समय पर वहां पहुंचकर अपना काम करवा ही लेगा। सुरेश ने अपने मन की सारी बातें मां से कह डाली। उधर उसका छोटा भाई पढाई करने के साथ-साथ बड़े भाई और मां के बीच हुए वार्तालाप को सुनता जा रहा था। उसने भी यह ठान लिया कि दोस्ती रहे या जाए पर वह मां के पेंशन के रूपयों को यूं बर्बाद होने नहीं देगा। सच कहा गया है कि मजबूरी इंसान को समय से पहले परिपक्व कर देती है जैसे एथीलीन कच्चे फलों को पका देता है।
नौकरी के लिए दी जाने वाली अर्जी की अंतिम तिथि भी नजदीक आ चुकी थी। सुरेश मां के वृद्धापेंशन के दौ सौ रूपये अपनी जेब में लिए पूरे आत्मविश्वास के साथ दफ्तर की ओर कूच कर चुका था। उधर उसका छोटा भाई भी अपनी योजना अनुसार मां के पेंशन के रूपये को बचाने की जुगत में भिड़ गया था। इधर सुरेश दफ्तर पहुंचता है। जिस व्यक्ति ने उससे प्रमाण पत्र के एवज में रूपये मांगे थे, उसे ईमानदारी से रूपये थमाते हुए प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए उसकी रजिस्टर में अपना हस्ताक्षर बना रहा था, उसका छोटा भाई और उसके छोटे भाई का दोस्त छिपकर यह सब देख रहे थे।
सुरेश के हाथों से रूपये लेने वाला कोई और नहीं उसी के दोस्त का पिता था जिसने प्रमाण पत्र के एवज में उससे दो सौ रूपये लिए थे। सुरेश की नजर अपने लक्ष्य पर थी वह प्रमाण पत्र को अपने सीने से यूं लगाते दफ्तर छोड़ चुका था मानों वह जाति प्रमाण पत्र नहीं उसकी अंतिम नियुक्ति का प्रमाण पत्र रहा हो।
इधर सुरेश के छोटे भाई का दोस्त अनिल उसके छोटे भाई के साथ अपने ही बाप की इस करतूत पर थू-थू कर रहा था। उसकी नजरें जमीन में गड़ी जा रही थीं। वह असहज महसूस कर रहा था मानों उसके पांव तले जमीन खिसक गई हो। वह अपने को कोसता हुआ अपने दोस्त के साथ घर वापस आ गया और सदा के लिए उस दोस्त से अलविदा कहने के अंदाज में अपने दिल की बात कह डाली-‘मुझे भूल जाओ मेरे दोस्त। किसी ने सच कहा है-दोस्ती बराबर वालों में टिकती है। तुम, तुम्हारा परिवार मुझसे कहीं ज्यादा महान है। तेरी और मेरी दोस्ती बराबरी की नहीं। मैं तुच्छ, तू श्रेष्ठ है।’’
उसे अपने दोस्त से यह सब सुन कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
उधर रामदीन की पत्नी की तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही थी रामदीन वक्त से पहले अपने आफिसर से छुट्टी ले घर लौट आया। घर पर उन बच्चों को देख सहज भाव से पूछ बैठा-अरे! तुम लोग आज स्कूल नहीं गए? इम्तिहान भी तो तुम लोगों के नजदीक हैं। यूं ही वक्त जाया नहीं करते। यह तो संयोग है कि मैं आज्ा सबेरे ही आफिस से चला आया और तेरी चोरी पकड़ी गई। अभी से संभल जाओ वरना इम्तिहान में अच्छा ना कर पाओ तो हमें नहीं कोसना।
सच कहा बापू। यह संयोग है कि मेरी चोरी पकड़ी गई। पर उससे भी बड़ा संयोग… यह कहते उसने दफ्तर की सारी घटना उसे सुना दी। रामदीन को मानो सांप सूंघ गया हो। वह जितना अपने सर को छिपाना चाहता उतना ही बेपर्द होता जा रहा था। वह अपने किए पर खुद को धिक्कार रहा था। उसे रह-रह कर श्रीधर की बातें झकझोरती जा रही थीं। उसने प्रायश्चित करने का ठान लिया कि वह तब तक दफ्तर नहीं जाएगा जब तक कि इस शहर से उसका स्थानांतरण ना हो जाए। उसने अपने बेटे और उसके दोस्त को गले लगा लिया और माफ कर देने एवं विनती के लहजे में, आंखों में प्रायश्चित के आंसुओं का समुद्र संजोए, अपनी पत्नी के कंधे पर अपना सिर इस तरह रख डाला मानों वह पुनर्जन्म की तलाश कर रहा हो।