मुनव्वर राणा की 10 बेहतरीन शायरी

चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है 

सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते 

फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं 

किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बाँधेगा 

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कांधा नहीं देते हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं 

मोहब्बत एक पाकीज़ा अमल है इस लिए शायद सिमट कर शर्म सारी एक बोसे में चली आई 

मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले मिट्टी को कहीं ताज-महल में नहीं रक्खा 

आते हैं जैसे जैसे बिछड़ने के दिन क़रीब लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं