कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारों

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

गूँगे निकल पड़े हैं ज़बाँ की तलाश में सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए 

रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है

सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर झोले में उस के पास कोई संविधान है 

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो 

जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा 

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए