अज़ीज़ मतवी की शायरी : Aajiz Matvi ki Shayari

जम्हूरियत का दर्स अगर चाहते हैं आप कोई भी साया-दार शजर देख लीजिए

जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़ मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम

सितम ये है वो कभी भूल कर नहीं आया तमाम उम्र रहा जिस का इंतिज़ार मुझे

मैं जिन को अपना कहता हूँ कब वो मिरे काम आते हैं ये सारा संसार है सपना सब झूटे रिश्ते-नाते हैं

एक हम हैं हम ने कश्ती डाल दी गिर्दाब में एक तुम हो डरते हो आते हुए साहिल के पास

मुंतज़िर हूँ मैं कफ़न बाँध के सर से 'आजिज़' सामने से कोई ख़ंजर नहीं आया अब तक

इंसान हादसात से कितना क़रीब है तू भी ज़रा निकल के कभी अपने घर से देख

हो बिजलियों का मुझ से जहाँ पर मुक़ाबला या-रब वहीं चमन में मुझे आशियाना दे

हसरतें आ आ के जम्अ हो रही हैं दिल के पास कारवाँ गोया पहुँचने वाला है मंज़िल के पास

होता है महसूस ये 'आजिज़' शायद उस ने दस्तक दी तेज़ हवा के झोंके जब दरवाज़े से टकराते हैं