मोहब्बत करने वाले दर्द में तन्हा नहीं होते जो रूठोगे कभी मुझ से तो अपना दिल दुखाओगे
मिरे हर ज़ख़्म पर इक दास्ताँ थी उस के ज़ुल्मों की मिरे ख़ूँ-बार दिल पर उस के हाथों का निशाँ भी था
कौन जाने किस घड़ी याँ क्या से क्या हो कर रहे ख़ौफ़ सा इक दरमियाँ होता है तेरे शहर में
वो जाते जाते मुझे अपने ग़म भी सौंप गया अजीब ढंग निकाला है ग़म-गुसारी का
रंग आ जाता था उन की दीद से रुख़ पर मिरे देख कर अब वो भी मुझ को सुर्ख़-रू होने लगे
जो हुआ जैसा हुआ अच्छा हुआ जब जहाँ जो हो गया अच्छा हुआ
ज़िंदगी सुंदर ग़ज़ल है दोस्तो ज़िंदगी को गुनगुनाना चाहिए
मैं जी भर के रोया तो आराम आया मिरा ग़म ही आख़िर मिरे काम आया
देखना कैसे पिघलते जाओगे जब मिरी आग़ोश में तुम आओगे
हम ने मिल-जुल के गुज़ारे थे जो दिन अच्छे थे लम्हे वो फिर से जो आते तो बहुत अच्छा था