आदिल मंसूरी के कुछ शानदार शायरी

मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर उस ने दीवारों को अपनी और ऊँचा कर दिया

कब तक पड़े रहोगे हवाओं के हाथ में कब तक चलेगा खोखले शब्दों का कारोबार

जीता है सिर्फ़ तेरे लिए कौन मर के देख इक रोज़ मेरी जान ये हरकत भी कर के देख

मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ ये जब्र है कि मैं ख़ुद अपने इख़्तियार में हूँ

दरिया के किनारे पे मिरी लाश पड़ी थी और पानी की तह में वो मुझे ढूँड रहा था

नींद भी जागती रही पूरे हुए न ख़्वाब भी सुब्ह हुई ज़मीन पर रात ढली मज़ार में

ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से घर में भी पाँव रखते हैं हम तो सँभाल कर

सोए तो दिल में एक जहाँ जागने लगा जागे तो अपनी आँख में जाले थे ख़्वाब के

कभी ख़ाक वालों की बातें भी सुन कभी आसमानों से नीचे उतर

अल्लाह जाने किस पे अकड़ता था रात दिन कुछ भी नहीं था फिर भी बड़ा बद-ज़बान था