अंबरीन हसीब अंबर:  वो मसीहा न बना  हम ने भी ख़्वाहिश नहीं की

दुनिया तो हम से हाथ मिलाने को आई थी हम ने ही ए'तिबार दोबारा नहीं किया

फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ

मुझ में अब मैं नहीं रही बाक़ी मैं ने चाहा है इस क़दर तुम को

उड़ गए सारे परिंदे मौसमों की चाह में इंतिज़ार उन का मगर बूढे शजर करते रहे

उम्र-भर के सज्दों से मिल नहीं सकी जन्नत ख़ुल्द से निकलने को इक गुनाह काफ़ी है

इस आरज़ी दुनिया में हर बात अधूरी है हर जीत है ला-हासिल हर मात अधूरी है

तुम ने किस कैफ़ियत में मुख़ातब किया कैफ़ देता रहा लफ़्ज़-ए-'तू' देर तक

हम तो सुनते थे कि मिल जाते हैं बिछड़े हुए लोग तू जो बिछड़ा है तो क्या वक़्त ने गर्दिश नहीं की

मोहब्बत और क़ुर्बानी में ही ता'मीर मुज़्मर है दर-ओ-दीवार से बन जाए घर ऐसा नहीं होता

दिल जिन को ढूँढता है न-जाने कहाँ गए ख़्वाब-ओ-ख़याल से वो ज़माने कहाँ गए