अमीता परसुराम मीता  की बेहतरीन शायरी

वक़्त से लम्हा लम्हा खेली है ज़िंदगी इक अजब पहेली है

कुछ तो एहसास-ए-मोहब्बत से हुईं नम आँखें कुछ तिरी याद के बादल भी भिगो जाते है

ज़िंदगी अपना सफ़र तय तो करेगी लेकिन हम-सफ़र आप जो होते तो मज़ा और ही था

अगर है ज़िंदगी इक जश्न तो ना-मेहरबाँ क्यों है फ़सुर्दा रंग में डूबी हुई हर दास्ताँ क्यों है

आज मौसम भी कुछ उदास मिला आज तन्हाई भी अकेली है

ये आरज़ू है कि अब कोई आरज़ू न रहे किसी सफ़र किसी मंज़िल की जुस्तुजू न रहे

तुम्हें हम से मोहब्बत है हमें तुम से मोहब्बत है अना का दायरा फिर भी हमारे दरमियाँ क्यों है

हम ने हज़ार फ़ासले जी कर तमाम शब इक मुख़्तसर सी रात को मुद्दत बना दिया

हम-सफ़र वो जो हम-सफ़र ही न था और फिर कर लीं दूरियाँ मैं ने

दो किनारों को मिलाया था फ़क़त लहरों ने हम अगर उस के न थे वो भी हमारा कब था