आनंद नारायण मुल्ला की शायरी: इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज थे। लोक सभा के सदस्य भी रहे

रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं अश्क पीने के लिए हैं कि बहाने के लिए

वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है

सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले तू ने रोका भी था बंदे को ख़ता से पहले

हम ने भी की थीं कोशिशें हम न तुम्हें भुला सके कोई कमी हमीं में थी याद तुम्हें न आ सके

अब और इस के सिवा चाहते हो क्या 'मुल्ला' ये कम है उस ने तुम्हें मुस्कुरा के देख लिया

गले लगा के किया नज़्र-ए-शो’ला-ए-आतिश क़फ़स से छूट के फिर आशियाँ मिले न मिले

मुझे कर के चुप कोई कहता है हँस कर उन्हें बात करने की आदत नहीं है

मैं फ़क़त इंसान हूँ हिन्दू मुसलमाँ कुछ नहीं मेरे दिल के दर्द में तफ़रीक़-ए-ईमाँ कुछ नहीं

वो दुनिया थी जहाँ तुम रोक लेते थे ज़बाँ मेरी ये महशर है यहाँ सुननी पड़ेगी दास्ताँ मेरी

इश्क़ करता है तो फिर इश्क़ की तौहीन न कर या तो बेहोश न हो हो तो न फिर होश में आ