ओबैदुल्लाह अलीम की बेहतरीन शायरी

मैं तन्हा था मैं तन्हा हूँ तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या

बना गुलाब तो कांटे चुभा गया इक शख़्स हुआ चराग़ तो घर ही जला गया इक शख़्स

अज़ीज़ इतना ही रक्खो  कि जी सँभल जाए अब इस क़दर भी न चाहो  कि दम निकल जाए

मैं ये किस के नाम लिखूँ जो अलम गुज़र रहे हैं मिरे शहर जल रहे हैं मिरे लोग मर रहे हैं

बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की सो अब अपनी ज़िंदगी में नए ख़्वाब भर रहे हैं

कुछ दिन तो बसो मिरी आंखों में फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या

एक चेहरे में तो मुमकिन नहीं इतने चेहरे किस से करते जो कोई इश्क़ दोबारा करते

पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स

हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई कि  इक सफ़र में रहे और हर सफ़र से गए

बाहर का धन आता जाता, असल ख़ज़ाना घर में है हर धूप में जो मुझे साया दे, वो सच्चा साया घर में है