Zafar Iqbal की बेहतरीन शायरी

झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र' आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए

तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम इधर से मैं भी तो बे-ध्यानी में जा रहा था

कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं पर्दा ये दरमियाँ से हटा लेना चाहिए

कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ तुम्हारे सामने है काम जितना हो रहा है

पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में तो रास्ता इसी दीवार से निकल आया

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते

मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी और मेरे लिए वो सारे का सारा कम है

अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है कि उस से मिल के बिछड़ने की आरज़ू है बहुत

जो यहां ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है

अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना