कबीर अजमल की बेहतरीन शायरी 

मैं बुझ गया तो कौन उजालेगा तेरा रूप ज़िंदा हूँ इस ख़याल में मरता हुआ सा मैं

ज़िंदा कोई कहाँ था कि सदक़ा उतारता आख़िर तमाम शहर ही ख़ाशाक हो गया

कहते हैं कि उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है

क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्माल है 'अजमल' इस घर पे तो आसेब का साया भी नहीं है

बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का मैं मुन्हरिफ़ तो नहीं था तिरे उसूलों का

इक धुँद सी फ़लक से उतरती दिखाई दे फिर उस में अक्स अक्स सँवरता हुआ सा मैं

अब के हवा चले तो बिखर जाऊँ दूर तक लेकिन तिरी गली में ठहरता हुआ सा मैं

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है