हनीफ़ अख़बार की बेहतरीन शायरी

इज़हार पे भारी है ख़मोशी का तकल्लुम हर्फ़ों की ज़बाँ और है आँखों की ज़बाँ और

इश्क़ में दिल का ये मंज़र देखा आग में जैसे समुंदर देखा

आइने में है फ़क़त आप का अक्स आइना आप की सूरत तो नहीं

वो कम-सिनी में भी 'अख़्गर' हसीन था लेकिन अब उस के हुस्न का आलम अजीब आलम है

लोग मिलने को चले आते हैं दीवाने से शहर का एक तअल्लुक़ तो है वीराने से

कोई साग़र पे साग़र पी रहा है कोई तिश्ना है मुरत्तब इस तरह आईन-ए-मय-ख़ाना नहीं होता

तुम्हारी आँखों की गर्दिशों में बड़ी मुरव्वत है हम ने माना मगर न इतनी तसल्लियाँ दो कि दम निकल जाए आदमी का

जो मुसाफ़िर भी तिरे कूचे से गुज़रा होगा अपनी नज़रों को भी दीवार समझता होगा

हसीन सूरत हमें हमेशा हसीं ही मालूम क्यूँ न होती हसीन अंदाज़-ए-दिल-नवाज़ी हसीन-तर नाज़ बरहमी का

अजब है आलम अजब है मंज़र कि सकता में है ये चश्म-ए-हैरत नक़ाब उलट कर वो आ गए हैं तो आइने गुनगुना रहे हैं