हमें पता है तुम कहीं और के मुसाफिर हो, हमारा शहर तो बस यूँ ही रास्ते में आया था !
इश्क़ ने गालिब निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के !
वो उम्र भर कहते रहे तुम्हारे सीने में दिल नहीं, दिल का दौरा क्या पड़ा ये दाग भी धुल गया !
कुछ लम्हे हमने खर्च किए थे मिले नही, सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया !
हम को उन से वफा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफा क्या है !
गुजर रहा हूँ यहाँ से भी गुजर जाउँगा, मैं वक्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा !
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम ना होते ना सही ज़िक्र तुम्हारा होता !
जिंदगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते, कफन भी लेते है तो अपनी जिंदगी देकर !
मैं नादान था जो वफा को तलाश करता रहा ग़ालिब, यह न सोचा की, एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी !
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को खुश रखने को ‘गालिब’ ये ख्याल अच्छा है !