मजरूह सुल्तानपुरी की बेहतरीन शायरी

मैं अकेला ही चला था  जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए  और कारवाँ बनता गया 

ऐसे हँस हँस के न देखा करो सब की जानिब लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं 

कोई हम-दम न रहा  कोई सहारा न रहा हम किसी के न रहे  कोई हमारा न रहा 

शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया 

देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख 

बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने  वर्ना किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते 

ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें

रोक सकता हमें ज़िंदान-एबला क्या 'मजरूह' हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं

ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह' हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे