बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते
ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें
रोक सकता हमें ज़िंदान-एबला क्या 'मजरूह' हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं
ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह' हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे