मनोज मुंतशिर  की शायरी जो  दीवाना बना दे

मैं अपनी गलियों से बिछड़ा  मुझे ये रंज रहता है, मेरे दिल में मेरे बचपन  का गौरी गंज रहता है

न दिन है न रात है  कोई तन्हा है न साथ है जैसी आँखें वैसी दुनिया  बस इतनी सी बात है.

कभी खुद्दारी की सरहद  ही नहीं लांघते हैं, भीख तो छोड़िये हम  हक़ भी नहीं मांगते हैं.

लपक के जलते थे बिलकुल  शरारे जैसे थे नये नये थे तो हम भी  तुम्हारे जैसे थे.

तू किसी की भी रहे,  तेरी याद मेरी है, अमीर हूँ मैं कि ये  जायदाद मेरी है.

दिल पर ज़ख्म खाते हैं  और मुस्कुराते हैं हम वो हैं जो शीशों  को टूटना सिखाते हैं

हमें प्यार अब दुबारा  होना बहुत है मुश्किल, छोड़ा कहाँ है तुमने हमको  किसी के काबिल.

मैंने लहू के कतरे  मिटटी में बोये है खुशबू जहाँ भी है  मेरी कर्जदार है

मेरा किस्सा सुन लिया  तो गमजदा होने लगोगे मैं तुम्हारा कुछ नही हूँ  फिर भी तुम रोने लगोगे...

कल सूरज सर पे पिघलेगा तो याद करोगे, कि माँ से घना कोई दरख़्त नहीं था… इस पछतावे के साथ कैसे जियोगे, कि वो तुमसे बात करना चाहती थी और तुम्हारे पास वक़्त नहीं था.