तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके
मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे
ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत लेते न कभी भूल के हम नाम-ए-मोहब्बत
मस्जिद में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा काफ़िर की शोख़ी देखो घर में ख़ुदा के मारा
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है ना-उमीदी हो तो फिर आराम की उम्मीद है
देती शर्बत है किसे ज़हर भरी आँख तिरी ऐन एहसान है वो ज़हर भी गर देती है
गुल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया ये भी लहू लगा के शहीदों में मिल गया