मैं और मिरी ज़ात अगर एक ही शय हैं फिर बरसों से दोनों में सफ़-आराई सी क्यूँ है
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था दरिया जो मुंजमिद है कभी मौजज़न भी था
मंज़िलें सम्तें बदलती जा रही हैं रोज़ ओ शब इस भरी दुनिया में है इंसान तन्हा राह-रौ
तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना किसी का ज़िक्र करे कौन एहतिसाब के साथ
दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी मंज़र मगर वो रक़्स-ए-शरर का नहीं रहा
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में जलते नहीं मासूम गुनाहों के दिए भी
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई यूँ भी न अपने दर्द को दरिया करे कोई
ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे वर्ना हम दोनों में ऐसी कोई उल्फ़त भी न थी
इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी
तिरे बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं दिखा कभी मेरे ख़्वाबों का आईना मुझ को