ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है
हर एक रात को महताब देखने के लिए मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है अपनी जबीं पे अपने ही क़दमों की गर्द है
ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है
ख़ुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए ज़ख़्मी हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए
जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे इतने घने दरख़्तों से पत्ते गिरे न थे
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए
वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका तमाम शहर के बच्चों से प्यार करता था