इरफ़ान सिद्दीकी  की शायरी

उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए

बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है

रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़ कम से कम रात का नुक़सान बहुत करता है

तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो

बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं

हम तो रात का मतलब समझें ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़ आगे का अहवाल वो जाने जिस ने रात गुज़ारी हो

तुम सुनो या न सुनो हाथ बढ़ाओ न बढ़ाओ डूबते डूबते इक बार पुकारेंगे तुम्हें

सरहदें अच्छी कि सरहद पे न रुकना अच्छा सोचिए आदमी अच्छा कि परिंदा अच्छा

हम सब आईना-दर-आईना-दर-आईना हैं क्या ख़बर कौन कहाँ किस की तरफ़ देखता है

शोला-ए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है