किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे किस से कहूँ कि मेरा गुनहगार कौन है
मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती रौशनी ख़ाक में तहलील नहीं हो सकती
वही रिश्ते वही नाते वही ग़म बदन से रूह तक उकता गई थी
ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है कुछ बचे या न बचे इस को बचा रखते हैं
इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब' आज का काम भी हम कल पे उठा रखते हैं
फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी लेकिन न खुल सका पस-ए-दीवार कौन है
आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा एक दिन रात ढले यौम-ए-हिसाब आएगा
मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले न आसमाँ का रहूँ मैं न आसमाँ मेरा
'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया
ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना उखड़ गए तो क़दम फिर कहाँ सँभलते हैं