साक़ी फ़ारुक़ी  की शायरी

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है मिरी यादों में इक भूला हुआ चेहरा भी रहता है

प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर

रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का न समझ

मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है

तुझ से मिलने का रास्ता बस एक और बिछड़ने के रास्ते हैं बहुत

तुम और किसी के हो तो हम और किसी के और दोनों ही क़िस्मत की शिकायत नहीं करते

लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं वक़्त अकेला इसी सबब से है

दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी

ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना