परवीन शाकिर: मुशायरों से के चुनिंदा 

वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा

वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा

रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चाँद

बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए