मीर अनीस की शायरी: लखनऊ के अग्रगी क्लासिकी शायरों में विख्यात/मर्सिया के महान शायर

आशिक़ को देखते हैं दुपट्टे को तान कर देते हैं हम को शर्बत-ए-दीदार छान कर

'अनीस' दम का भरोसा नहीं ठहर जाओ चराग़ ले के कहाँ सामने हवा के चले

तमाम उम्र जो की हम से बे-रुख़ी सब ने कफ़न में हम भी अज़ीज़ों से मुँह छुपा के चले

'अनीस' आसाँ नहीं आबाद करना घर मोहब्बत का ये उन का काम है जो ज़िंदगी बर्बाद करते हैं

सिवाए ख़ाक के बाक़ी असर निशाँ से न थे ज़मीं से दब गए दबते जो आसमाँ से न थे

गर्मी से मुज़्तरिब था ज़माना ज़मीन पर भुन जाता था जो गिरता था दाना ज़मीन पर

ख़ाक से है ख़ाक को उल्फ़त तड़पता हूँ 'अनीस' कर्बला के वास्ते मैं कर्बला मेरे लिए

मिसाल-ए-माही-ए-बे-आब मौज तड़पा की हबाब फूट के रोए जो तुम नहा के चले

तू सरापा अज्र ऐ ज़ाहिद मैं सर-ता-पा गुनाह बाग़-ए-जन्नत तेरी ख़ातिर कर्बला मेरे लिए

छाए फूलों से भी सय्याद तो आबाद न हो वो क़फ़स क्या जो तह-ए-दामन-ए-सय्याद न हो