क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं
आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर हम तिरे वास्ते तय्यार हुआ करते थे
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम' ये कभी वक़्त की रफ़्तार हुआ करते थे
पुकारते हैं उन्हें साहिलों के सन्नाटे जो लोग डूब गए कश्तियाँ बनाते हुए
दुनिया अच्छी भी नहीं लगती हम ऐसों को 'सलीम' और दुनिया से किनारा भी नहीं हो सकता
कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर बिखर न जाऊँ कहीं मैं तिरी हिफ़ाज़त में
कुछ इस तरह से वो शामिल हुआ कहानी में कि इस के बाद जो किरदार था फ़साना हुआ
मोहब्बत अपने लिए जिन को मुंतख़ब कर ले वो लोग मर के भी मरते नहीं मोहब्बत में