शकेब जलाली की शायरी:  प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर। कम उम्र में आत्म हत्या की

बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे तितलियाँ मंडला रही हैं काँच के गुल-दान पर

तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख

सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में

जाती है धूप उजले परों को समेट के ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के

मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

न इतनी तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख

गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था