मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ तुम मुझ से पूछते हो मिरा हौसला है क्या
हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो हमें आता है पतझड़ के दिनों गुल-बार हो जाना
कुछ यादगार अपनी मगर छोड़ कर गईं जाती रुतों का हाल दिलों की लगन सा है
सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मिरी इंतिहा है क्या
आलम ही और था जो शनासाइयों में था जो दीप था निगाह की परछाइयों में था
तुम पास नहीं हो तो अजब हाल है दिल का यूं जैसे मैं कुछ रख के कहीं भूल गई हूं
इस क़दर तेज़ हवा के झोंके शाख़ पर फूल खिला था शायद