बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा जिक्र भी आ जाएगा फसाने में
इंसान की ढवाहिशों की कोई इंतिहा नहीं दो गज़ ज़मीन भी चाहिए दो गज़ कफन के बाद
बस्ती में अपनी हिंदू मुसलमान जो बस गा.ए इंसान की शक्ल देखने को हम तरस गए
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई तुम जैसे गाए ऐसे भी जाता नहीं कोई
अब जिस तरफ से चाहे गुजर जा.ए कारवां वीरानियां तो सब मिरे दिल में उतर गाण
मुद्दत के बाद हमें ने जो लुत्फ की निगाह जी घुश तो हो गया मगर आंसू निकल पाडे