अभिषेक शुक्ला  की शायरी

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए

तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है आज की रात मुझे ख़्वाब में रोता हुआ देख

हम वहशी थे वहशत में भी घर से कभी बाहर न रहे जंगल जंगल फिर भी कितना नाम हुआ हम लोगों का

शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े रोज़ का इक मामूल है अब तो ख़्वाब-ज़दा हम लोगों का

जाने क्या कुछ हो छुपा तुम में मोहब्बत के सिवा हम तसल्ली के लिए फिर से खगालेंगे तुम्हें

चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है रस्ता नहीं मंज़िल नहीं अच्छा हुआ तू है

मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है मैं इस ज़मीन से निकलूँ तू आसमाँ से निकल

हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक हमारे पीछे कभी ये जहान भी पड़ता

ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में वही दुआ जो नज़र कर रही है लब भी करें

ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है हम पे अपनी ही किसी बात का ग़ुस्सा उतरा