शोधपत्र

मस्तिष्क पर जोर डाल सोचता हूँ कहां देखा है। पास टेबल पर नजर जाती है ‘द समिंग अप’ समरसेट मॉम की पुस्तक। कुछ अजीब सा। फिर कहीं खो जाता हूं। सात-आठ महीने पहिले दिल्ली रेल्वे स्टेषन के बुक स्टोर पर किसी महिला की आवाज जो मेरे पीछे से आई थी।

Dec 2, 2024 - 17:37
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शोधपत्र
research paper

तुम्हारा नाम!
उससे क्या होगा। कुछ भी हो सकता है। यहां नाम नहीं। उम्र, माल, चीज पूछी जाती है। सब नाम पूछते हैं। पता नहीं क्यों और फिर वही सब।
फिर भी कोई नाम तो होगा ही।
कुछ नहीं। एक जिस्म, जहाँ पर हर पुरूष अपने को निचोड़ चल देता है अपने समाज में। हम यहीं बैठे उनका इन्तजार करती हैं पेट के लिये।
सब पेट के लिए किया जाता है।
बुरा भी क्या है। हर रात नये मेहमान पुरानों को भुलाते जाते हैं। यह भी एक जिन्दगी है।
उसने उठ कमरे में जलती लालटेन को थोड़ा तेज कर दिया। अब मैं उसे साफ देख पा रहा था। लगा कहीं देखा है तुम्हें।
हो सकता है। मैंने भी बहुतों को देखा है। इस वक्त आपको देख रही हूँ। कल कहीं बाजार में तुम मिलो तो पहिचानने से मना भी कर सकते हो। पर मैंने मना नहीं किया तुम्हें।
मस्तिष्क पर जोर डाल सोचता हूँ कहां देखा है। पास टेबल पर नजर जाती है ‘द समिंग अप’ समरसेट मॉम की पुस्तक। कुछ अजीब सा। फिर कहीं खो जाता हूं।
सात-आठ महीने पहिले दिल्ली रेल्वे स्टेषन के बुक स्टोर पर किसी महिला की आवाज जो मेरे पीछे से आई थी।
वुड यू, गिव दिस माम्स बुक।
विच वन।
देट्स, द समिंग अप। हाउ मच?
सिक्स्टी रूपीज।
हेव।
पीछे मुड़कर देखा था बिल्कुल माड ड्रेस में, चेहरे पर बडे़ गागल्स। याद आया यह वही है। इत्तफाक ही था रिजर्वेषन स्लिपर में आपने-सामने हमारे बर्थस् थीं। मुझे नींद आने लगी थी। मैं सो गया था।
आपने देहली देखा है कभी।
नहीं। देखना चाहती हूँ। 
ये अंग्रेजी किताब कौन पढ़ता है।
मेरी है।
दोबारा लगता है यह सब क्या है। उस यात्रा को सुबह जागा था तो सामने वाली बर्थ खाली थी।
आपको मॉम पढ़ना अच्छा लगता है।
हाँ। बहुत।
अंग्रेजी पढ़ लेती हो।
क्यों नहीं।
यह लो ‘पेन्टेड वेल’
नो। थैंक्स आई हेव रेड इट्।
वही आवाज, वही अंग्रेजी का उच्चारण।
तुम देहली देखना चाहती हो ना।
हाँ। सच।
सच नहीं झूंठ। बिल्कुल झूंठ। ठीक से या है सात-एक महीने पहिले तुम देहरादून एक्सप्रेस में स्लिपर में थीं और वहीं रेल्वे स्टेशन से यह ‘‘द समिंग अप’’ खरीदा था।
लगता है आप कहानीकार हैं आप मेरा समय खराब कर रहे हैं।
मैं न कहानीकार हूँ न आपका समय खराब कर रहा। 
पर क्या यह सच नहीं .........।
आपका दिल रखने को ही कह दूं तो क्या होगा?
होना तो कुछ भी नहीं है।
आपने जो कहा सच है। आप चाहते क्या हैं। कम एण्ड बी-एट ईज।
सोच रहा हूँ। तुम और यह बस्ती, ये लोग। अजीब सा लग रहा है।
अभी सब ठीक हो जायेगा। डोन्ट बी इमोषनल, इट्स लाईफ वेयर आई फील सेटिसफाइड। जिन पढ़े लिखों की बात कर रहे हो मूर्खता है। तुम सुनना ही चाहते हो ना-
मेरे पिता ने मेरी शादी मेरी इच्छा से एक लेक्चरार से कर दी, जिसे मैं बहुत प्यार करती थी। शादी की पहली रात मैंने पाया वह आदमी नहीं था। निराष थी।
ऐसा कई लोगों के साथ है। क्या वे सब ऐसा ही करते हैं। 
कौन क्या करता है, कुछ नहीं कहा जा सकता। मैं क्या करती हूँ और तुम यहां क्यों आये हो, तुम जानते हो। ऐसे ही सब अपनी सीमाओं में यही करते हैं आदर्षों, ऊपरी घटाटोप के बीच।
वह जो कह रही है लगता है कटुसत्य है। सब कैसे, क्या करते हैं वे ही जानते हैं। 
आपका नाम।
नवेन्दु।
आपका।
आरक्ता। पति लेक्चरर हैं देहली में। मैं भी हो सकती हूं पर चाहती नहीं।
इस जिन्दगी के बारे में आपके पति ............।
व्यर्थ के प्रष्न हैं सारे। शादी के समय मेरी उम्र इक्कीस वर्ष थी। एक उफनता सैलाब। जिसे कसकर बांध लेने वाले की जरूरत थी। कई रातें बीतीं। जब रेषमी बिस्तरों पर, सलवटों में करवटें बदलते, कसमसाते, जागती-सोती रही। कभी लगा किसी की बांहों में मेरी सांस फूल रही है, पसीने में लथपथ शरीर जल रहा है, जागी तो कुछ नहीं। पति महोदय दूसरे कमरे में पढ़ रहे होते। रोज, हर रोज ऐसे ही स्वप्नों में डूबती-उतराती। चाहती थी कहीं सन्तोष मिले। पर उम्र का चढ़ाव, यौवन की आग सूखे जंगल की आग से भी खतरनाक होती है।
ठीक है। फिर भी ये लोग, ये बस्ती।
यहाँ के लिये मैं आरक्ता नहीं सीमा हूँ। तीन साल से अधिक समय बीता है। मैं रहती नहीं यहां। दो-चार दिन के लिए चली आती हूँ जब तुम्हारे समाज से जी घबराने लगता है। बाहर कितना पैसा दिया है।
क्यों!
वैसे ही मैंने रफीक से कह रखा है पूरी रात के लिए मुझे किसी के साथ न बांध दिया करे। पता नहीं आज उसने ऐसा क्यों किया।
क्यों? बोर हो रही हो।
नहीं। ऐसा तो नहीं। उतने टेंशन में नहीं आज। तीसरा दिन है यहां भूख कुछ कम हो गई है। आओ बाहर चलें कुछ देर के लिए।
हाँ। जरूर।
कमरे से बाहर निकल जाते हैं। सड़क पर पांच-सात ट्रकों की पार्किंग लाईट्स जल रही हैं। पास के घरों से शराब, सिगरेट, फुसफुसाहट की हल्की आवाजें आ रही हैं। चांदनी फैली है। ट्रकों पर बैठे खलासियों के ठहाकों की आवाजें बीच-बीच में उभरती हैं। यह पन्द्रह-बीस घरों की बस्ती है।
आरक्ता। क्या यहां सब जरायमपेषा लोग ही हैं।
हाँ। मैं इनकी मेहमान होती हूँ।
इन्हें कोई दिक्कत नहीं तुमसे। 
नहीं। यह लोग बहुत खुष होते हैं। मेरे आने से। इनकी आय दुगनी हो जाती है। रात को अधिक ट्रक्स रूकते हैं। रात इनके लिये जवान हो जाती है। तुम कुछ पीना चाहोगे।
क्यों नहीं। वह भी इस सर्दी में।
रफीक। ऐ! रफीक।
कहिये।
कुछ लाओ ना।
अभी लाया।
रफीक चला गया। आरक्ता ने अपने दांये हाथ को मेरी कमर से कस लिया है। ठंडी हवा का झोंका आता है।
जी मेमसाब। नमकीन, सोडा कुछ नहीं। खतम हो गया।
कोई बात नहीं। नवेन्दु, नीट चलेगी।
हाँ। कभी ये भी सही। मुझे दो।
एक ग्लास भर उसे दे खुद बोटल से ही पीने लगता हूँ।
आरक्ता। ये गुलाब बहुत ...................
किक् करती है ना और इसलिए अच्छी भी है। जिन्दगी की सहजता से नफरत हो गई है मुझे। अब तो जो किक् करे, काटे वहीं अच्छा लगता है। तुमने बोतल फेंक दी।
क्यों तुम्हें और चाहिये।
नहीं पहिले ही बहुत दे दी तुमने। आओ बैठें, लगता है बैठना चाहिये ये चांद आगे बढ़ रहा है ना, हम तो रूक ही सकते हैं। 
अं........ह........हं। क्यों नहीं। हम तो रूक ही सकते हैं।
दोनों नाले पर बने पुल पर जा बैठते हैं। आरक्ता पुल की दीवार पर पैर फैला कर पसर गयी है। सिर मेरी जांघों पर हैं।
कैसा लग रहा है नवेन्दु।
लग रहा है चाँद रूक गया है अब तो।
वन्डरफुल। रूक जाने दो उसे।
दो-चार ट्रक्स के रूकने की आवाजें आती हैं। कुछ लोग उतरे हैं। रेंगते से झोंपड़ियों में पहुँच रहे हैं। हमें बैठे काफी देर हो गयी है यहां।
न-वे-न्दु। तुम भी वैसे ही लेक्चरर हो क्या।
कैसा। 
इम्पोटेंट। ऐसा नहीं तो मुझसे कुछ चाहते क्यों नहीं।
चाहता क्यों नहीं। यह प्रष्न मुझ से पूछ रही हो। बाहर कुछ सर्दी तेज है। चलो वापस चलते हैं। 
अं......हं। यहीं सिर्फ यहीं।
चलो भी।
कहा ना। सिर्फ यहीं.... केवल यहीं। कोई सर्दी नहीं है तुम्हें सर्दी लग रही है?
नहीं पर मैं समझ रहा हूं शराब का तुम पर पूरा असर हो चुका है।
हां। नशा तो अब होगा नवेन्दु जी। कितना समय हुआ है?
तीन बज रहे हैं।
अन्धेरा बहुत है। चलो कमरे में चलते हैं। वह मेरी बांहों के सहारे उठती है।
वुड यू हेल्प मी।
श्योर।
लड़खड़ाते पैरों से कमरे तक आते हैं। सहारा दे उसे बिस्तर पर लिटा देता हूूं। मेरा हाथ नहीं छोड़ती अपने पास खींच लेती है।
कम-ऑन।
लालटेन की रोशनी कम कर साथ लेट जाता हूं, परिचय देने कि मैं लेक्चरर नहीं हूं।
सुबह के आठ बज रहे हैं। जागा हूँ। आरक्ता टेबल पर झुकी कुछ लिख रही है।
कुछ लिख रही हो।
हाँ। दो मिनिट।
लगातार लिखे जा रही है। रफीक मेरे लिये चाय ले आया है।
तुम चाय पियोगी।
नहीं तुम लो। आयम् बिजी। एक्सक्यूज मी।
बाहर। खिड़की से कुछेक झोपड़ियां दिख रही हैं। एक सन्नाटा, मुर्दनी सी छायी हुई है। रात भर थकने के बाद औरतें झोंपड़ियों के आगे बेसुध पड़ी हैं। आरक्ता तेजी से लिखे जा रही है। अपने को रोक नहीं पाता-
क्या लिख रही हो?
कुछ खास नहीं।
फिर भी। खैर। मैं चलूंगा।
एक मिनिट। बस। वह टेबल से उठ आयी है। एक फाईल और पत्र देती है।
नवेन्दु इस पते पर यह पहुंचा देना।
तुम्हें किसने कहा मैं देहली जा रहा हूँ।
‘‘गुलाब’’ ने। किक् करती है ना। भूल गये तुम। यह कहना परसों शाम उनसे मिलूंगी।
फाईल कवर पर छपा है-ह्यूमन नेचर एण्ड सक्सुअ‍ॅल रिलेशन्स।
क्या सोचने लगे। मेरा पी-एच.डी. थिसिस है यह। तुम भी एक पात्र हो इसके। देख क्या रहे हो। ट्रेन चल देगी।
ठीक है। मैं चलूं।
मुस्कुराते कहती है-मेरी याद के लिये यह भी लेते जाओ।
कमरे से निकल पगडण्डी से होता सड़क पर आ गया हूँ। पीछे मुड़ देखता हूं। आरक्ता कमरे के बाहर खड़ी हल्के से हाथ हिला अन्दर चली जाती है।
एक हाथ में शोध-पत्र है दूसरे में सॅमर सेट माम का ‘‘द समिंग अप’’। 

प्रफुल्ल प्रभाकर

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