औलाद

Oct 24, 2024 - 21:55
Nov 4, 2024 - 13:52
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औलाद

‘औलाद’

कहते हैं न कि जो किसी से नहीं हारते,वे अपनी औलाद से हार जाते हैं। रामकिशन को पेड़–पौधों से बड़ा स्नेह था। जब भी किसी पेड़ की डाली हिलती देखते तो हल्की मुस्कान के साथ उठ खड़े होते। महसूस करते हैं कि आज भी बचपन इस पेड़ की तरह नई ऊर्जा के साथ झूम रहा है। इस सुदृश्य को रामकिशन अकेले ही देखते थे। किसे फुर्सत पड़ी। 

रामकिशन के दो बेटे हैं। बड़ा दयालदास और छोटा नीरज। दयालदास बिजली विभाग में सहायक है।...पर नीरज अभी काम की तलाश में हैं। दोनों भाई अलग–अलग ही रहते हैं। जिन्हें बचपन से यही शिक्षा दी गई कि वे साथ रहें,किंतु दिन बीते,शिक्षा बीती।

रामकिशन छोटे बेटे नीरज के साथ ही रहते हैं। पुत्रवधू सीमा प्राइवेट कंपनी में है। उसी पर घर चलता ,ठिठकता है। दोनों बाहर ही रहते हैं...और रामकिशन घर में अकेले। जब भी वे घर में कोई पौधा लगाते, नीरज कहता,‘पापा! घर को जंगल बनाओगे क्या? इतने धरे तो है।’ रामकिशन एक चुप्पी के साथ उसे लौटा आता। कभी–कभी तो मन बहलाने वह बाहर बाज़ार में टहलने निकल जाते हैं। अगर उन दोनों(नीरज और सीमा) के आने से पहले घर आ जाते तो मंगल ही मंगल।..और जो बाज़ार में दीठ पड़ते तो.. जै–जै राम ! वहीं से चीखते हुए घर की देहरी ला पटकता।

रामकिशन,जिसकी गांव में धाक जमी रहती थी।..कहने पर सब हो जाता था। घर से निकलते ही ‘राम–राम’ शुरू हो जाया करती थी। मेड़ों पर बैठे किसान भाई भी उठकर प्रणाम करते। बड़ा मान–सम्मान था।..मुंशी काका तो आज भी हर हफ़्ते तार लिख भेजते हैं। “आओ तो रामकिशन ! तुम्हारे मुंशी काका के द्वार आज भी खुले हैं।” पर रामकिशन का हिय तो इस चौखट पर ही जम गया है। कहते हैं – हमारी पूंजी तो हमारे लड़के हैं इन्हें छोड़ कैसे आऊं ? मन नहीं मानता काका !...दो कदम चलो तो कांपने लगता हूं..सिर घूमता है तो संभाल लेते हैं। बड़े भले लोग है काका !”

मुंशी काका का पूरा नाम–‘मुंशी हरगोबिंददास’ है। गांव में सबसे बुजुर्ग है इसलिए सभी मुंशी काका ही कहते हैं।..रामकिशन को बेटे से अधिक मानते हैं। काका से ही शिक्षा–दीक्षा ली। ‘गुरु की महिमा’ उन्हीं के मधुर स्वर से सुनी। वे फिर कहते हैं –“ शहर में कबीर और तुलसी पर पीएच.डी. किए बैठे हैं पर वचनों में तनिक भी मधुरता नहीं। बेवजह किसी को बतलाओ तो काटने को दौड़ते हैं। यहां केवल नेताओं का नेतावाद,बेराजगार युवाओं की हड़ताले,कदम–कदम पर घूस।

रोज़ की तरह आज भी रामकिशन बाज़ार आए। कुछ खरीदने नहीं,रंगीन दुकानों को देखने और भीड़ का कोलाहल सुनने। कोई भला पक्के मकानों और शीशे की खिड़कियों से कब तक झांकता रहे ? दुकान के बाहर एकाध ने, आइए! चाचा ! आपको बीस प्रसेंट डिस्काउंट देंगे, आइए!आइए!’ रामकिशन सबको अनसुना कर आगे की दुकानों को देखने लगते। एक हल्की मुस्कान और आंखों में चमकती दुकानों के प्रतिबिंब।

चलते–चलते भीड़ में इस प्रकार गुम हो जाते कि घर पहुंचते–पहुंचते संध्या हो आती। भीड़ में केवल भीड़ ही देखती है है।घर का ख्याल किसे आए ? रामकिशन अपने को मन को कोसते हुए घर पहुंचे। नीरज बाहर ही खड़ा था। वे बिना कुछ बोले,सिर झुकाए भीतर चले गए। अकस्मात सीमा मेजपोश झाड़ते हुए चिल्लाने लगती है,“एक काम है वह भी न होता। घर पर कोई न रहे तो पांव इधर टिकते ही नहीं। बाहर का भी देखो और भीतर का भी। घर छोड़ चली जाऊं तो दाना–पानी ही रुक जाए।..एक यह है कि समय पर इंटरव्यू देने न पहुंचते,दिनभर मारे–मारे फिरते हैं।..कुछ न बन पड़े तो हाथ पर हाथ धरे इधर ही पड़े रहते हैं। पड़े रहो..बाप और बेटे दोनो इधर ही।” कहती हुई वह रसोई में चली गई। नीरज ने रामकिशन की देखकर ,पापा ! पता तो है सीमा का नेचर,फिर क्यों जाते हैं आप? जो चाहिए,कह देते,ले आता” रामकिशन निराश होकर बालकनी में चले गए। कभी मुंशी काका के तार देखते तो कभी रख देते..सोचते हैं,कितना सुंदर जीवन था। जब दोनों भाई साथ रहते थे। केवल दयालदास ही विवाहित था। बड़ी सुशील पत्नी मिली। सौ–सौ पुण्यों से मिलती है ऐसी पत्नी। बड़ा भाग लेकर जन्मा है दयालदास। राम है राम मेरा बेटा। मन तो करता है उसके पास ही चला जाऊं पर नीरज के ताने पैरों में गर्म बेड़ियों से बांध देते हैं। अगर शोभा जीवित होती तो ऐसा कभी न होता। गांव ही रहते क्यों इन पक्की सड़कों पर माथा पटकते। विवाह हुआ नहीं कि नीरज अलग। वह कहते हैं न कि एक स्त्री चाहे तो पुरुष को स्वर्ग बना दे चाहे तो नरक।...पर नरक में भी एक घड़ी चैन पड़ता होगा..इधर तो पग पग पर कांटे चुभते हैं। कभी–कभी लगता है दुख की यह पगडंडी बनाने वाला वह खुद ही है। यह सब अपने कर्म के फल है।..दूसरी तरफ सीमा सोचती है, शादी से पहले अगर जॉब होती तो यह शादी कभी न करती।.. हाय! री मेरी क़िस्मत इन देहातों के गले टांगना था। मक्कार कहीं के.!!

अगले दिन तार आया ,मुंशी काका नहीं रहे। पढ़कर रामकिशन फूट फूटकर रोने लगे। सीमा टकटकी लगाकर देख रही थी..‘अब यह क्या नया ड्रामा है ?’ ‘ड्रामा नहीं है मुंशी दद्दा नहीं रहे’ नीरज ने तत्क्षण उत्तर दिया। रामकिशन अपने आंसू पौंछते हुए,‘नीरज! मुझे गांव ले चल री ’..सहसा सीमा ने हाथ छुड़ाया.,‘नीरज कहीं नहीं जाएंगे,आपके काका..आप जाने..हमे फुर्सत नहीं।’

अचानक दरवाजे पर दयालदास की दस्तक। बड़ी बहू कामिनी भी साथ थी। उसने आगे बढ़कर रामकिशन के पांव छुए। ‘खुश रहो बिटिया’ उन्होंने एक टूटते स्वर में कहा। दयालदास नीरज की तरफ देखता है। ‘तुम न चलोगे नीरज?’ सीमा ने बीच में बात काट दी..‘नहीं चलेंगे’..दयालदास ने आंखे गड़ाकर कहा,‘मैंने अपने भाई से पूछा है और तुम उत्तर कब से देने लगी?’ ‘वे कुछ नहीं बोलेंगे’ दयालदास फिर नीरज को देखता है और तैश में आकर,‘गूंगे तो पहले भी थे,आज बहरे भी हो लिए !! चलिए बाबूजी ! यहां लोग नहीं पत्थर बसते हैं। जिन्हें अपने अलावा कुछ न सूझता।’ कहते हुए दयालदास बाहर चला गया। कामिनी ने भीतर जाकर बाबूजी के कपड़े संभाले। कुछ देर बाद एक थैले के साथ बाहर आई। ‘चलिए बाबूजी!’ रामकिशन वहीं निस्तब्ध। ‘नीरज को बिन लिए कैसे चलें ?’ ‘पर सीमा न आने देगी’ ‘कौन बहू? उसके कहने से क्या होता है मेरा बेटा है’ सीमा गुर्रा जाती है। ‘अब यह मेरे हसबेंड भी है..नहीं चलेंगे मतलब नहीं चलेंगे’ रामकिशन ने धीरे–धीरे नीरज से नज़रे हटा ली। वे कामिनी के साथ बाहर आए। कभी चलते,कभी पीछे देखते,फिर चलते,फिर देखते। सीमा दरवाज़ा बंद कर देती है। रामकिशन दयालदास से आंहे भर फिर बिलखने लगे। ‘आज काका के जाने का इतना शोक न था। यह करुणा जो फूट पड़ी है,बेटे के जाने की है।

‘जो जीवन से नहीं हारते,वे औलाद से हार जाते हैं।’

—साहित्यबंधु

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Skumar साहित्य सृजन पुरस्कार व अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, सर्व भाषा साहित्यकार सम्मान प्राप्त। वक्त रहते विचार लो कि क्या करना है अभी। यह जो वक्त बीत गया फिर निराश होंगे सभी।।