Best Places to Visit in Sri Lanka : दक्षिण एशिया में हिन्द महा सागर के उत्तरी भाग में स्थित यह सुन्दर द्वीप, ‘हिन्द महा सागर का मोती’ उपनाम से भी जाना जाता है। यह भारत के दक्षिण में, समुद्र से बत्तीस किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ स्वर्ग है। अपने प्राकृतिक सौन्दर्य व अद्भुत प्राकृतिक दृश्यों एवं बहुमूल्य विरासत के कारण लम्बे समय से यह छोटा-सा द्वीप पर्यटकों के लिए लोकप्रिय गंतव्य बना आ रहा है। यही नहीं, ऐसा माना जाता है कि यहाँ के इतिहास में कही रामायण से सम्बंधित घटनाएँ भी उल्लिखित है।
यह छोटा द्वीप, समय- समय पर अनेक साम्राज्यों के अधीन रहा करता था। ऐसा माना जाता है कि पुराने ज़माने में भारत के लाटा प्रान्त के रजा, विजय को सज़ा के तौर पर भारत से निकाला गया था, वे अपने सेना सहित इस द्वीप में आ गये थे। जब वे द्वीप के उत्तरी भाग में ताम्र वर्ण समुद्री तट पर विश्राम कर रहे थे, तब कहा जाता है कि उनकी हथेलियाँ तट के रेत से ताम्रवर्ण हो गया। इसलिए उन्होंने इस आकर्षित द्वीप को ‘तम्बपन्नी’ नाम रखा। इनके बाद कई साम्राज्यों ने जैसे, अरब, पुर्तुगाली, डच यहाँ अपना शासन चलने का प्रयत्न किये थे, पर वे अधिक समय तक टिक नहीं पाए थे। अंत में देश पर कई साल तक अंग्रेज़ी हुकूमत चलता रहा। समय-समय पर आये हुए उन परदेसियों ने इस देश को अलग-अलग नाम रख कर अपना पहचान भी स्थापित किया था। इनमें से `सेरंडिब’,‘तेप्रोबैन’, `सेलान',‘सीलोन’नाम इतिहास के ग्रंथों में मिलते हैं।
१. उपनिवेश-श्री लंका :
पर्यटन स्थल बना श्री लंका के इतिहास को भी जानना अति आवश्यक है। इतिहास ग्रंथों के अनुसार ईसई सन् १४,१५,१६ में यूरोप के ‘कांस्टैंटिनोपल’ महा नगर में ईसाइयों और तुर्कि मुसलमान लोगों के बीच धर्म युद्ध हो गया था। इससे तुर्कों की विजय हुई। धीरे-धीरे वे सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिम एशिया और दक्षिण-पूर्वी युरोप पर अधिकार कर लिया। इससे एशिया व पूर्वी देशों से व्यापार करने के स्थल-मार्ग पर उनका एकाधिपत्य हो गया और ये मार्ग युरोपीय जातियों के लिए पूर्णतया बंद था। इसलिए यूरोपियों को व्यापार करने के लिए जल मार्ग की खोज करना पड़ा।
यह एक विडम्बना थी। इतिहास यह बताता है कि ई.सन १५०५ में यात्री ‘लोरन्सो द अलमेदा’ अपनी सेना के साथ कहीं यात्रा कर रहे थे कि उनकी नाव समुन्दरी आँधी में फ़ँस कर श्री लंका के तट पर रुक गयी थी। इससे श्री लंका का इतिहास, एक नया मोड़ पाया। वे पुर्तगाली थे। उस समय श्री लंका के व्यापर पर मुसलमानों और दक्षिण भारत द्रविड़ लोगों ने कब्ज़ा किया था। जब पुर्तगाली ‘गाल्ल’ बंदरगाह में अकस्मात पहूँच गये, तब बंदरगाह में; दालचीनी, सुपारी, फर्निचर बनाने वाली लकड़ियाँ आदि मुसलमान व्यापारियों का सामान तथा काम्बोज देश में बेचने के लिए लाये गए हाथी के बच्चों से भरे कई नावें बंदरगाह में रखे हुए थे।
ईसाई धर्म के प्रचार में और व्यापार करने आये पुर्तगालियों ने उन मुसलमानों को भगा कर वहाँ पर अपना अधिकार बना लिया और अधिकार जताने के लिए उन्होंने कुछ देशी लोगों की सहायता से उस जगह पर अपना राज चिह्न लगा दिया। इतना ही नहीं श्री लंका के राजा को भी बहुत उपहार भेजे थे।१ आज भी वह चिह्न और ‘गोन्सालवेस’ का नाम, जिन्होंने उस काम के लिए योगदान दिया था, उस जगह पर स्मरण के रूप में उपलब्ध है।
विदेशी व्यापारियों को श्रीलंका इसलिए भाता था, क्योंकि उनको अपना व्यापार चलाने में अनेक सुविधाएँ यहाँ मिलती थी। मुख्य रूप से हिन्द महा सागर के पूर्वी व्यापर देशों तक जाने का समुंदरी मार्ग ‘पॉक जल संधि’ श्रीलंका के साथ-साथ उपलब्ध होता है। यहाँ तीन ऐसे प्राकृतिक बंदरगाह स्थित है, जिससे उत्तर-पूर्वी मानसून से विदेशी व्यापारियों की नावें सुरक्षित रह सके। देश की जलवायु के साथ उन तीन प्राकृतिक बंदरगाह ने पर्यटकों को मोहित किया। इसलिए उन्होंने अपना गढ़ कोलम्बो में बनाया।
व्यापर के बहाने आये पुर्तगालियों ने सन् १५०५ में पूरे श्रीलंका के समुंदरी इलाकों का अधिकार उनके हाथ में ले लिया था। इतिहास ग्रंथ यह भी बताते हैं कि सन् १९२० तक पुर्तगालियों का स्मारक उस जगह पर भी रहा करता था और वे राजा से एक शर्त पर समझौता किया कि ‘अगर श्री लंका से हर साल मेट्रिक टन ४०० दालचीनी,मसाले,हीरे जवाहरात जडे २० अंगूठी,मोती,१० हाथी दे दें,तो वे मुसलमानों से श्री लंका के व्यापारी तटीय क्षेत्र की रक्षा कर देंगे। उस समय हिन्द महा सागर की कोई भी तटीय भागों की राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थी। इसलिए किसी को भी देश में प्रवेश करना मुश्किल कार्य नहीं था।२ सिंहली बौद्ध जनता उनके आतंक से पीड़ित थे। उन ईसाई मिशनरी लोग बौद्ध धर्म को नष्ट करना चाहते थे। पुर्तगालियों से मुक्ति पाने के लिए राजा ‘राजसिंह’,डच लोगों से मदद माँगने लगे और उनके साथ एक समझौते के कागज़ पर दस्तकत करके पुर्तगालियों को भगाने की योजना बनाने लगी।
सन् १६४० ई वीं में डचों ने पुर्तगालियों पर हमला बोला और उन्हें मार गिराया। पुर्तगालियों का सारा समुंदरी इलाका अपने अधीन कर लिया। डचों ने व्यापार की सफलता के लिए मसाले,चाय,रबड़,दालचीनी आदि वनस्पतियों का रोपण करके अपना व्यापार स्थापित किया। मसालों को युरोपीय देशों में भेजने के अतिरिक्त एशिया में घोड़ों का ही नहीं श्री लंका में हाथियों का भी व्यापार करने लगे। श्रीलंका में प्राकृतिक तीन बंदरगाह होना इनके लिए और भी आसान हो गये। अपना ईसाई धर्म को प्रचार करना भी उनका एक और अभिप्राय रहा। इसलिए बाद में उनका आना श्री लंकाई लोगों में घृणा घर कर गयी थी। सिंहली रजा ही पुर्तगालियों से बचने के लिए डचों को बुलाया था, उस पर सिंहलियों में एक कहावत है,‘अदरक देकर मिर्चा लिया’। जैसे मिर्चा अदरक से भी तीखा है, वैसे पुर्तगालियों से डचों का शासन से लोग परेशान थे। फिर भी, आर्थिक उन्नति में डचों का योगदान रहा। डचों को पुर्तगालियों से यह पता चला कि श्री लंका के दालचीनी किसी भी देश से दूसरा नहीं था और ये दालचीनी अपने बढ़ियापन के कारण सब से महँगा भी था। उनलोगों ने दालचीनी के बढ़िया उत्पाद में किसानों को स्वर्ण पदक से सम्मानित करके उन्हें प्रोत्साहित किया गया था। श्रीलंका के समुन्दर से करोड़ों कीमत मोतियों का चट्टान भी वे ढूंढ निकले। देश के कई जगहों में रोम देश के वास्तु शास्त्र के अनुसार ईसाई मंदिरों का निर्माण करने लगे, जो आजकल पर्यटन स्थल बन गये थे।
१८०० ईस्वी के आते-आते श्री लंका के तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का आक्रमण हो गया। इसके लिए श्रीलंका के रजा की सहायता अंग्रेजों को मिली थी। वह इसलिए कि डच शासन से श्री लंका परेशान थे।
अंग्रेजों के आने के बाद श्री लंका के समाज में कई बदलाव आने लगा। देश की जनता दो अलग अलग हिस्सों में बँट गए। ‘ऊपरी और दक्षिण की ओर’ देश के पहाड़ी हिस्सा और तटीय हिस्सा। पहाड़ी इलाके के लोगों में पवित्र सिंहलीपन को लेकर ज्यादा घमंड, आडम्बर उत्पन्न होने लगा। क्योँकि तटीय इलाके कई विदेशी आक्रामकों के अधिकार होने के साथ-साथ उन जातियों की अच्छी और बुरी संस्कृति का प्रभाव भी वहीँ के लोगों पर पड़ी थी। इसलिए पहाड़ी इलाके में रहने वाले यह सोचने लगे कि तटीय इलाके के लोगों में विदेशियों के साथ शादी-ब्याह होने से जाति-कुल में मिलाव होगया और वे ऊँचे जाती के नहीं हैं। वर्तमान समाज में आज भी लोगों में वहीँ मानसिक प्रवृत्ति देखी जा सकती थी। खास करके शादी-ब्याह में आज भी अप्कान्ट्री वाले डावुन सवुत से शादी नहीं करते। ये भेद-भाव आज भी देखने को मिलते हैं।
२.प्रसिद्ध पर्यटन- स्थल
पर्यटन के सन्दर्भ में श्री लंका में कई ऐसी जगहें हैं, जिनको देखते ही पर्यटक मुग्ध हो जाते हैं। नीली-सुनहरी नदियाँ, झरने, सुन्दर पहाड़ ही नहीं आकर्षक समुद्र तट, श्री लंका पर साक्षात प्रकृति की कृपा बरसा रही है। इसी कारण, अज कल श्रीलंका की मुख्य आमदनी भी पर्यटन उद्योग हो गया है।
-रामायण कथा से सम्बंधित ऐतिहासिक पर्यटन स्थल
ऐतिहासिक घटनाओं को मूल में रख कर कई भारतीय एवं अन्य विदेशी पर्यटक ही नहीं स्थानीय पर्यटक भी स्थलों को देखने आते हैं। विशेष कर भारतीय पर्यटकों का मानना है कि उनके धर्म-ग्रन्थ रामायण की कथा से सम्बंधित पुरावृत्त श्री लंका से मिलते हैं। जैसे जब रावण सीता माता का अपहरण करके श्री लंका ले आये, तब पूरे वानर सेना सहित राम-लक्ष्मण ने सीता की वापसी के लिए युद्ध लड़ी। उसी घटना से सम्बंधित बहुत ही ऐतिहासिक स्थान आज भी श्री लंका में पाए जाते हैं।
श्री भक्त हनुमान मंदिर
ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि जब हनुमान जी माता सीता की खोज में लंका गये, तब इस जगह पर विश्राम कर रहे थे। वहाँ की कुछ जगहों का नाम , तथ्य और लोग कथाएँ इसका प्रमाण साबित करते हैं। यह श्री लंका में रामायण टूर के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है।
सन् १९९९ में जिस भूमि पर एक मंदिर की स्थापना की गयी थी, उस गाँव को ‘राम गोडा’ या वहाँ के तमिल निवासियों के अनुसार उस जगह को ‘रम्बोडा’ कहा जाता है। इसका अर्थ है ‘रामा के सेना’। वहाँ मंदिर बनवाने का श्रेय श्री लंका के एक मिशन ‘चिन्मय मिशन’ को जाता है।१ लेकिन हनुमान जी के प्रति श्रीलंका के कतिपय हिन्दू लोग प्रसन्न नहीं हैं, क्योंकि हनुमान जी ने अपने पूँछ से लंका को जलाया था। फिर भी वर्तमान में श्रीलंका के मिशनरी हिन्दू लोगों ने इस मंदिर की पूजा पुनः आरंभ की। तब से हिन्दू और कुछ बौद्ध लोगों के बीच सबसे अधिक प्रचलिन तीर्थ स्थान यही हनुमान मंदिर है। स्थानीय लोगों का कहना है वहाँ चमत्कार भी होता रहता है। कहा जाता है कि अठारह फीट लम्बी यह हनुमान मूर्ति ही श्री लंका की सबसे ऊँची हनुमान मूर्ति है।
हनुमान जयंती से पहले मंदिर में दस दिन तक कई प्रकार की पूजापाठ ही नहीं मंदिर से जुलुसें भी निकलती है। यह कोलोंबो नुवाराएलिया महा मार्ग में राम्बोडा नमक स्थान में स्थित है और अगर नुवरा एलिया शहर से आएँगे तो केवल तीस किलोमीटर की दूरी पर है। राम्बोड़ा में उतर कर कुछ दूर तक पहाड़ के ऊपर जाने पर यह मंदिर का दर्शन हो पाता है।
सीता आँसू तालाब
जब राजा रवण, सीता माता को अशोक वाटिका तक ले गये, तब ऐसे मार्ग से होकर गये जिससे श्री लंका की सुन्दरता माता को दिखा सके। उस मार्ग को ‘रथ-पथ’ या तो ‘रावण पथ’ कहा जाता है, जो रम्बोड पहाड़ियों के जंगलों में, कैंडी-नुवार एलिय मुख्य मार्ग पर स्थित है। वहाँ से चारों ओर देखा जाए तो ओस से ढकी पहाड़ियों की शृंखला, रमणीय झरने अदि की दृश्य नज़र अती है। ‘रामायण’ पुरावृत्त के अनुसार दुखी सीता माँ जब उस मार्ग से ले आयी, तब माता के अधिक रोने के कारण उनकी आँसू से उस भूमि पर एक तालाब बन गया था। स्थानीय निवासियों का मानना है कि श्री लंका में भीषण सूखा पड़ने पर भी उस तालाब का पानी नहीं सूखा, जबकि आस-पास की नदियाँ सूख गयी थीं। यही नहीं चमकीले लाल फूल वाले एक-दो पेड़ों के सिवा उस भूमि में आज तक छोटी झाड़ियाँ और घासफूस ही दिखाई देते थे।२ वही लाल फूल की विशेषता यह है कि दिखने में वह धनुष उठायी हुई एक मानव आकृति है। लोगों के मानना है यह धनुष धरे साक्षात् राम है। यह फूल पूरे श्री लंका में केवल वही स्थान पर पाए जाते हैं।
अशोक वाटिका / सीता अम्मान मंदिर
माता सीता का अपहरण के बाद रावण भले ही सीता को अपने महल में ले गये, फिर भी माता सीता को रावण के महल नरक-सा महसूस होने लगा। वह वहाँ नहीं रहना चाहती थी। तो रावण ने उनका दिल जीतने हेतु एक सुन्दर उद्यान में, जहाँ फूलों भरे अशोक के वृक्ष (श्री लंका के राष्ट्रीय वृक्ष) अधिक थे, सीता को रखा। बाद में उस जगह अशोक वाटिका के मान से प्रसिद्ध हो गया।
आज भी वह जगह श्री लंका के पर्वतीय क्षेत्र में पाया जाता है, जिसे ‘सीता एलिया’ नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों में लिखा है कि वहाँ माता सीता लम्बे समय तक बंदी बनी हुई थी। समय के साथ-साथ श्रीलंका के पुरातत्व अधिकारियों को पास की नदी से सौ साल पहले तीन मूर्तियाँ बरामद हुई थीं, जिनमें से एक मूर्ति सीता जी की थी। उनका मानना है कि हज़ारों साल तक इन मूर्तियों की पूजा की जाती थी और अज भी वहाँ के मंदिर में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान जी की पूजा की जाती है। उस मंदिर को सीता अम्मान मंदिर बोला जाता है।
अशोक वाटिका के निकट पर्वतों की एक श्रुंखला देखी जा सकती है। लोक कथाओं के अनुसार उस श्रुंखला के सबसे ऊँचे शिखर पर से हनुमान ने सीता को देखा था और उसके बाद से आकर माता सीता से मिले। आज भी नदी के तट के पत्थर पर कुछ निशान पाए जाते हैं जो दिखने में बन्दर के पाद चिह्न जैसे लगते हैं। कुछ चिह्न बड़े तथा कुछ चिह्न छोटे। उससे यह बात साबित होता है कि हनुमान अपनी इच्छा के अनुसार अपने शारीर का आकर घटा या बढ़ा सकते थे।
माता सीता की मुलाकात के बाद हनुमान ऊधम मचाने लगे। यह देख राक्षस पहरेदारों ने हनुमान ने कैद कर रावन के सामने पेश किया। दंड के रूप में हनुमान की पूँछ में आग लगायी गयी। हनुमान ने उसी आग से लंका के कई स्थान जला दिये। आज भी हग्गला पहाड़ी शृंखला की कई जगह पर जलने की निशान पाये जाते हैं। ‘उस्संगोड़ा’ नामक स्थान इसका ठोस सबूत है।
डॉ. दि. रसांगी नानायक्कर | Sri Lanka